‘‘अंगरेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी’’… कांग्रेसियों को याद आई सिंधिया परिवार की कहानी!

-सियासतदानों को याद आई 1857 की आजादी की लड़ाई
-ट्वीट और बयानों के जरिए सिंधिया परिवार पर वार पर वार

टीम एटूजैड/ नई दिल्ली
मध्य प्रदेश के कांग्रेसी दिग्गज ज्योतिरादित्य सिंधिया की कांग्रेस के साथ बगावत के बाद सियासतदानों को 1857 की आजादी की लड़ाई याद आ गई है। कांग्रेस नेता ट्वीट और बयानों के जरिए सिंधिया परिवार पर वार करने का कोई मौका नहीं चूक रहे। महान कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की कालजयी कविता ‘‘बुदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी’’ में इस बात का वर्णन किया गया है कि ‘‘अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी’’। इतिहास में सिंधिया राजघराने को लेकर हमेशा संदेह जताया गया है। माना जाता है कि ग्वालियर के तत्कालीन शासक जयाजीराव ने स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजों का साथ दिया था। युद्ध के समय वह विदेश भाग गए थे और ग्वालियर की सेनाओं ने सही समय पर रानी लक्ष्मीबाई का साथ नहीं दिया था।
अब जबकि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़कर भारतीय जनता पार्टी का दामन थामने का मन बना लिया है तो उनके परिवार के बारे में कांग्रेसी नेता कुछ इसी तरह के ट्वीट और बयानदे रहे हैं। दिग्विजय सिंह के बेटे और मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री जयवर्धन सिंह ने ट्वीट किया है कि ‘‘झाँसी का इतिहास एक बार फिर दोहराया गया… हम अपने लोगों के साथ खड़े होंगे, सत्ता का क्या है, वो तो आती-जाती रहती है। हम अपने सिद्धांत पर अपने लोगों के साथ अडिग खड़े हैं।’’
दूसरी ओर मध्य प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अरुण यादव ने तंज भरा ट्वीट किया है कि ‘‘ज्योतिरादित्य सिंधिया द्वारा अपनाए गए चरित्र को लेकर मुझे ज़रा भी अफसोस नहीं है। सिंधिया खानदान ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी जिस अंग्रेज हुकूमत और उनका साथ देने वाली विचारधारा की पंक्ति में खड़े होकर उनकी मदद की थी।’’
वहीं मध्य प्रदेश सरकार के एक और मंत्री जीतू पटवारी ने ट्वीट किया कि ‘‘एक इतिहास बना था 1857 में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की मौत से, फिर एक इतिहास बना था 1967 में संविद सरकार से और आज फिर एक इतिहास बन रहा है..।
63 साल का सियासी सफर… पांच दल और 5 किरदार
आजाद भारत की राजनीति में राज परिवारों के राजनीतिक रसूख में मध्य प्रदेश के ग्वालियर-गुना के सिंधिया परिवार की कहानी भी बड़ी रोचक रही है। महाराष्ट्र के सातारा जिले में कान्हेरखेड़ गांव के पाटिल जानकोजीराव के वंशज अपने आज तक के राजनीतिक करियर में 27 बार सांसद और 9 बार विधानसभा सदस्य रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि राजमाता से लेकर ज्योतिरादित्य तक सत्ता के गलियारों में इस परिवार की महत्वाकांक्षाएं पार्टी लाइन पर हमेशा भारी पड़ती रही हैं।
कांग्रेस से 18 साल जुड़े रहने के बाद पिता की 75वीं पुण्यतिथि पर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सोची समझी रणनीति के तहत इस्तीफा दे दिया। इसके चलते सिंधिया परिवार की ’सत्ता की कहानी’ में एक नया अध्याय जुड़ गया है। उनके इस फैसले का सिंधिया परिवार के सदस्यों ने भी स्वागत किया है। उनकी बुआ वसुंधराराजे और यशोधराराजे ने इसे ज्योतिरादित्य की घर वापसी करार दिया है। वहीं ज्योतिरादित्य के इकलौते बेटे महाआर्यमन ने इसे अपने पिता का साहस बताकर ट्वीट किया है।
विजयाराजे की कहानीः
देश में राजे-रजवाड़ों के विलय के बाद राजमाता के पति जीवाजीराव ने आजाद भारत में सिंधिया परिवार के रुतबे को आगे बढ़ाया। उस दौर में कांग्रेस ही सब कुछ थी। लेकिन जीवाजी की दिलचस्पी राजनीति में कम और अपनी विरासत को संभालने में ज्यादा थी। कांग्रेस के बड़े नेताओं की कोशिशें के बाद वह अपनी पत्नी राजमाता विजयाराजे सिंधिया को राजनीति में प्रवेश के लिए मान गए थे। चार बेटियों और एकमात्र बेटे माधवराव की मां विजया राजे ने पहली बार 1957 में गुना से कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा और जीतीं।
कांग्रेस के दरवाजे से ही सिंधिया परिवार का भारत की राजनीति में प्रवेश हुआ था। राजमाता ने 2 बार कांग्रेस, 1 बार जनसंघ, 1 बार जनता पार्टी, 3 बार भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर और 1 बार निर्दलीय लोकसभा चुनाव लड़कर कुल 8 बार देश की संसद में प्रवेश किया। सिंधिया परिवार में विजयाराजे सिंधिया का राजनीतिक करिअर सबसे ज्यादा पार्टियों में रहा। पहली बार उन्होंने ही कांग्रेस को झटका दिया था। इसके बाद उनके पुत्र माधवराव और अब पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी ऐसा ही करके इतिहास को दोहराया है।
माधवराव की कहानीः
राजमाता के सक्रिय राजनीतिक करिअर के दौरान ही बेटे माधवराव सिंधिया भी राजनीति में उतर आए। 1971 में मां की राह पर चलते हुए गुना से जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ा और 1999 तक लगातार कुल 9 बार सांसद का चुनाव जीते। यह सिंधिया परिवार में एक रिकॉर्ड भी है। मां ने चार पार्टियों में अपना करियर बढ़ाया तो बेटे माधवराव ने जनसंघ, निर्दलीय, कांग्रेस और खुद के दम पर मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस पार्टी बनाकर राजनीति की।
1980 में संजय गांधी के साथ दोस्ती की खातिर माधवराव सिंधिया ने जनता पार्टी और मां से राजनीतिक रिश्ते तोड़कर कांग्रेस का हाथ थाम लिया। इसके बाद 1996 में उन्होंने एक बार कांग्रेस के साथ भी बगावत की, लेकिन वह फिर कांग्रेस में लौट आए। इसके बाद 2001 में दुर्घटना में हुई अपनी मौत तक कांग्रेस में ही बने रहे। 1984 में अटल बिहारी वाजपेयी को ग्वालियर से हराकर माधवराव सिंधिया ने सबसे बड़ी जीत हासिल की थी, जिसने मध्य प्रदेश में उनका राजनीतिक कद सबसे ऊंचा कर दिया था।
वसुंधरा राजे की कहानीः
विजयाराजे की चौथी संतान और माधवराव से 8 साल छोटी वसुंधरा ने अपनी मां का साथ देते हुए भाजपा से जुड़ीं और 1984 में मध्य प्रदेश के भिंड से पहला चुनाव लड़ीं। लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पैदा हुई महालहर में वह हार गईं। हालांकि इसके बाद वसुंधरा ने अपने ससुराल राजस्थान का रुख किया और धौलपुर, झालरापाटन व झालावाड़ में सक्रिय होकर भाजपा की राजनीति करने लगीं। वसुंधरा राजे सिंधिया परिवार की एकमात्र सदस्य हैं जो पांच बार विधानसभा और पांच बार लोकसभा के लिए चुनी गईं। सिंधिया परिवार में एकमात्र वसुंधरा ही अपने भतीजे ज्योतिरादित्य की करीब मानी जाती हैं।
यशोधरा राजे की कहानीः
सिंधिया परिवार में सबसे कम राजनीतिक उपलब्धियां सबसे छोटी बेटी यशोधरा के खाते में रही हैं। यशोधरा अपनी बहन वसुंधरा से केवल एक साल छोटी हैं। लेकिन एक ही पार्टी में होने के बावजूद दोनों का राजनीतिक करियर अलग है। उनकी गिनती मप्र के बड़े नेताओं में तो होती है फिर भी उनकी कम सक्रियता ने उन्हें बड़े पदों से दूर रखा है। यशोधरा राजे ने शिवपुरी से 1998 और 2003 में दो बार विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज की। शिवराज सरकार में उन्हें उद्योग और वाणिज्य मंत्रालय संभालने का मौका भी मिला।
ज्योतिरादित्य की कहानीः
1 जनवरी 1971 को माधवराव सिंधिया के परिवार में जन्मे ज्योतिरादित्य को अथाह संपत्ति के साथ उतनी ही राजनीतिक विरासत भी मिली है। 2001 में मैनपुरी में एक हवाई दुर्घटना में पिता की मौत उन्हें राजनीति में लेकर आई। 2002 से उन्होंने अपना करियर अपने पिता की पार्टी से ही आगे बढ़ाया और कांग्रेस के टिकट पर 2002 से लेकर 2014 तक लगातार चार बार सांसद चुने गए।
2019 में गुना की पुश्तैनी सीट पर उन्हें अपना ही शिष्य कहे जाने वाले भाजपा के केपी सिंह यादव ने हरा दिया। 1 लाख 25 हजार वोटों से मिली हार ने ज्योतिरादित्य के राजनीतिक करिअर पर सवाल उठा दिए। क्योंकि जहां एक ओर दिसंबर 2018 में जब मध्य प्रदेश में 72 साल के कमलनाथ के सामने 48 के युवा ज्योतिरादित्य को मौका नहीं मिला। वहीं पांच महीने बाद उनके नेतृत्व में कांग्रेस को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी हार का सामना करना पड़ा। अपने ही प्रदेश में वह अपनी खुद की सीट नहीं बचा पाए थे।
मंगलवार 10 मार्च 2020 को उन्होंने कांग्रेस पार्टी के साथ बगावत कर दी। हालांकि इसके बीज इसी साल के दूसरे महीने में उस समय फूट पड़े जब किसानों की कर्जमाफी के मुद्दे पर ज्योतिरादित्य के सड़क पर उतरने के बयान पर कमलनाथ ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था – ‘‘तो उतर जाएं।’’ यहीं से कयास लगाए जा रहे थे कि सब कुछ ठीक नहीं है। आखिरकार भाजपा की कोशिशों को कामियाबी मिली और ज्योतिरादित्य ने पाला बदल लिया।