डायबिटीज पेशेंट्स के लिए मुसीबत है हाई ब्लड प्रेशर
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हाइपरटेंशन डायबिटीज के साथ होने वाले रोगों में सबसे सामान्य बीमारी है। यह बीमारी डायबिटीज से जूझ रहे करीब 40 से 60 फीसदी मरीजों को प्रभावित करती है। यह रोग सभी मरीजों में डायबिटीज की हालत को और भी जटिल बना देता है। दोनों तरह की बीमारियां हार्ट अटैक, स्ट्रोक और किडनी फेल होने की स्थिति के लिए भी कारण बन जाती हैं। एक अनुमान के मुताबिक डायबिटीज के बिगड़ने के 30-75 फीसदी मामलों में हाइपरटेंशन या हाई ब्लड प्रेशर को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। हाई ब्लड प्रेशर होने का खतरा डायबिटीज के मरीजों में उन लोगों से लगभग दोगुना होता है, जिन्हें डायबिटीज नहीं होती।
इंसुलिन पर निर्भर टाइप 1 के डायबिटीज मरीजों और इंसुलिन का इंजेक्शन पर आश्रित न होने वाले टाइप 2 के मरीजों में हाइपरटेंशन की अवधि और प्राकृतिक इतिहास काफी अलग-अलग होता है। टाइप 1 डायबिटीज में ब्लड प्रेशर आमतौर पर जांच कराने के समय सामान्य ही रहता है। जबकि हाई ब्लडप्रेशर आम तौर पर किडनी का रोग होने के बाद ही परंपरागत रूप से बढ़ता है। जिन मरीजों को 30 वर्षों से अधिक से डायबिटीज का रोग है, उसमें से करीब 50 फीसदी रोगियों को हाईब्लडप्रेशर की बीमारी होती है। इससे डायबिटीज के रोग से ही किडनी संबंधी बीमारियां भी पनपती हैं।
डायबिटीज के टाइप-1 के मरीजों के विपरीत टाइप-2 के मरीजों में जांच के समय ही हाईब्लडप्रेशर पाया जाता है। टाइप-2 के डायबिटीज के मरीजों में उच्च रक्तचाप में बढ़ोतरी का संबंध मोटापे, कम शारीरिक गतिविधि और उम्र बढ़ने से होता है। दिल की मांसपेशियों के सिकुड़कर धमनियों में रक्त को पंप करने की हालत में एक बिल्कुल अलग तरह का हाइपरटेंशन का रोग पनपता है। धमनियों के सिकुड़ने और बड़ी धमनियों में अनुकूल लचीलेपन की कमी हो जाती है।
डायबिटीज के मरीजों में मृत्युदर बढ़ाने में हाइपरटेंशन का प्रमुख योगदान रहता है। डायबिटीज के मरीजों में हाई ब्लडप्रेशर का संबंध माइक्रोवैस्कुलर और मैक्रोवैस्कुलर संबंधी जटिलताएं बढ़ने से ही होता है। मैक्रोवस्कुलर रोग टाइप-2 डायबिटीज से पीड़ित मरीजों की बड़ी संख्या में मौत होने का प्रमुख कारण माना गया है।
दिल की बीमारी का खतराः
जिन मरीजों को हाइपरटेंशन और डायबिटीज दोनों रोग होते हैं, उनमें दिल की बीमारी होने का खतरा उन लोगो के मुकाबले दोगुना होता है, जिन्हें डायबिटीज नहीं होती और केवल हाई ब्लडप्रेशर की बीमारी होती है। हाइपरटेंशन से जूझ रहे डायबिटीज के मरीजों में इलाज के लक्ष्य के तौर पर ब्लड प्रेशर को 130 बाई 80 के लेवल पर लाने की सिफारिश की जाती है। इस लक्ष्य को हासिल कर डायबिटीज के साथ हाइपरटेंशन के मरीजों में मौत का खतरे को कम किया जा सकता है।
डाइट में करें सुधारः
डायबिटीज और हाईब्लडप्रेशर के इलाज में नॉनफार्माकोलॉजिकल तरीकों में वजन घटाना शामिल है। अगर किसी मरीज का वजन ज्यादा है तो उसका 5 से 10 फीसदी वजन घटाना मददगार हो सकता है। डाइट में सुधार कर कुछ लोगों के लिए भोजन में उचित मात्रा में पोटेशियम को शामिल करना मददगार हो सकता है।
एक्सरसाइज से लाभः
नियमित रूप से एरोबिक्स की फिजिकल एक्टिविटी से कसरत करने की क्षमता बढ़ती है और इससे दिल के रोगों से बचाव में मदद मिलती है। शराब का सेवन करने से शरीर में प्लाज्मा ट्रिगलीसाइड का लेवल बढ़ सकता है। और मरीजों में दिल की धमनियों के सिकुड़ने की रफ्तार तेज हो जाता है। केवल व्यवहार में स्थायी रूप से बदलाव लाकर लाइफ स्टाइल में बदलाव की लंबे समय तक पालन किया जा सकता है।
फार्माकोलॉजिकल थेरेपीः
जहां केवल जीवनशैली में बदलाव लाकर हाइपरटेंशन को कंट्रोल नहीं किया जा सकता वहां फार्माकोलॉजिकल थेरेपी वहां शुरू करनी चाहिए। डॉक्टर जिन फार्मालॉजिकल उपचार के तरीकों का पालन करते हैं, उनमें एंजियोटेनसिन कन्वर्टिंग एंजाइम (एसीई) इनहिबिटर्स, एंजियोटेनसिन रेसिप्टर ब्लॉकर (एआरबी) के साथ थाइजाइड डाइयूरेटिक्स या कैल्शियम चैनल इनहिबिटर्स शामिल है। बीटा-एडर्नजिक ब्लॉकिंग एजेंट्स की भी उन मरीजों के इलाज में मुख्य भूमिका होती है, जिनको पहले दिल का दौरा पड़ चुका है। कई दवाओं के मिश्रण की थेरेपी भी इसमें काफी मददगार हो सकती है और शरीर पर दवाइयों का असर पड़ने में मदद मिल सकती है। अगर मरीजों के इलाज में एसीई इनहिबिटर्स या एआरबी का इस्तेमाल किया जाता है तो किडनी के फंक्शन और सीरम पोटैशियम लेवल पर भी नजर रखना बहुत जरूरी हो जाता है।
बिहेवरियल थैरेपी से इलाजः
डायबिटीज और हाइपरटेंशन के मरीज का बिहेवरियल थेरेपी से इलाज किया जाना चाहिए और एंटी हाइपरटेंसिव दवाइयों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। किसी भी मरीज के इलाज के तरीके का फैसला व्यक्तिगत आधार पर उसके ब्लडप्रेशर लेवल का अध्ययन करने और उस पर दवाइयों के असर की विशेषताओं को देखकर ही लिया जाना चाहिए। इसमें डायबिटीज, ब्लडप्रेशर के साथ मरीजों को होने वाली दूसरी बीमारियों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। और मरीज के शरीर की दवाइयों को सहन करने की क्षमता और व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को भी देखा जाना चाहिए।
नोटः लेखक डॉ. वी. मोहन गैरसंक्रामक रोगों के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोग केंद्र डॉ. मोहन डायबिटीज स्पेशलिटीज सेंटर के चेयरमैन, मधुमेह रोग के प्रमुख विशेषज्ञ हैं। वह चेन्नई में डायबिटीज पर अनुसंधान के लिए आईसीएमआर सेंटर, मद्रास डायबिटीज रिसर्च फाउंडेशन के प्रेसिडेंट हैं।