सबसे कड़ा है उत्तर प्रदेश का सियासी घमासान

-पहली बार लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा साथसाथं
-पहली बार प्रियंका गांधी ने संभाली कांग्रेस की कमान
-पहली बार भाजपा के लिए सीएम मोदी-योगी का अभियान
-पहली बार सभी दलों को चुनावी घमासान नहीं आसान
"भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती ओबीसी और सवर्ण वोट को अपने साथ जोड़े रखने की है। 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में इसी वोट बैंक की वजह से पार्टी ने ऐतिसाहिक जीत हासिल की थी।"

 

शक्ति राठौर
सियासी अखाड़ों में आम कहावत है कि दिल्ली की सत्ता के शिखर का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। भारत की राजनीति का दिल है उत्तर प्रदेश। इस बार इस दिल की धड़कनें सामान्य से बहुत ज्यादा तेज हैं। इसके कई कारण हैं, क्योंकि लोकसभा चुनाव में पहली बार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी एक साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ रही हैं। पहली बार ही प्रियंका गांधी ने कांग्रेस राज्य में कांग्रेस की कमान संभाली है। 2014 के लोकसभा चुनाव की तुलना में इस बार विपक्ष ज्यादा आक्रामक है। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार अपने कामों की बदौलत वोट मांगने के लिए मैदान में उतरी है।
पांच साल पूर्व की तुलना में इस बार सबसे बड़़ा अंतर यह भी है कि करीब बीस साल बाद केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार है। भाजपा भले ही अब भी मोदीमय है पर इस बार उसे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का मजबूत साथ भी पहली बार मिला है। पिछली बार की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस बार भी उत्तर प्रदेश से ही चुनाव लड़ेंगे। इस बार यूपी की सियासी परीक्षा पास करना सभी दलों के लिए बड़ी चुनौती है।
भाजपा के सामने 2014 दोहराना चुनौती
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 80 में से 71 और सहयोगी अपना दल को 2 सीट पर जीत हासिल हुई थी। यानी भाजपा गठबंधन को राज्य में कुल 73 सीटें मिली थीं। इसके बाद हुए उपचुनाव में भाजपा ने गोरखपुर और फूलपुर जैसी महत्वपूर्ण सीटें गंवा दी थीं। दरअसल भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती ओबीसी और सवर्ण वोट को अपने साथ जोड़े रखने की है। 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में इसी वोट बैंक की वजह से पार्टी ने ऐतिसाहिक जीत हासिल की थी। भाजपा के सहयोगी दल अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी से भी उसके संबंध पहले जैसे नहीं रहे हैं। हालांकि चुनाव प्रबंधन के मामले में भाजपा विपक्षी दलों से काफी आगे है। पार्टी उत्तर प्रदेश सहित करीब सभी राज्यों में बूथ स्तर तक के सम्मेलन कर चुकी है।
सवर्ण वोट बैंक का मोह भंगः
साल 2014 के मुकाबले इस बार सवर्ण वोट बैंक का भारतीय जनता पार्टी से कुछ हद तक मोह भंग हुआ है। यही कारण रहा कि पिछले दिनों हो कई राज्यों में विधानसभा चुनाव के दौरान पार्टी को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अपनी सरकार गंवानी पड़ी। हालांकि अब भाजपा की केंद्र सरकार ने सवर्ण गरीबों को 10 फीसदी आरक्षण देने की बात कर सवर्णों की नाराजगी को कुछ कम करने की कोशिश की है। लेकिन यह नाराजगी पूरी तरह से अभी दूर नहीं हुई है। दूसरे एससी/एसटी एक्ट के तहत सवर्णों को बिना किसी जांच के जेल भेजने के कानून को लेकर भी सवर्ण वर्ग में नाराजगी है। इसके सबसे ज्यादा दुरूपयोग के मामले भी उत्तर प्रदेश में ही देखने को मिले हैं।
एसपी-बीएसपी-आरएलडी गठबंधन
समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल गठबंधन ने भाजपा को प्रदेश भर में घेरने की तैयारी की है। हालांकि इस गठबंधन की असली चुनौती आपस में तालमेल का अभाव है। सबसे बड़ा सवाल है कि क्या सपा-बसपा का वोट एक दूसरे को ट्रांसफर हो सकेगा। क्योंकि अब तक दोनों ही दलों के मतदाता आपस में लड़ते रहे हैं। खासतौर से शिवपाल के मैदान में आने और कांग्रेस-अपना दल के अलग से एक साथ लड़ने के बाद, क्या भाजपा विरोधी वोट बैंक एक जगह मतदान कर सकेगा? हालांकि अखिलेश यादव और मायावती अब तक बहुत ही ज्यादा परिपक्वता का परिचय दे रहे हैं। क्योंकि दोनों ही धुर विरोधी दलों का गठबंधन इतना आसान नहीं था, जितनी आसानी से हो गया है।
पहले-दूसरे चरण में दांव पर सपा-बसपा की प्रतिष्ठाः
लोकसभा चुनाव के पहले और दूसरे चरण में होने वाले चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश में 16 सीटों में से गठबंधन की ओर से बसपा दस सीट पर चुनाव लड़ रही है। तीन पर सपा और तीन पर आरएलडी चुनावी मैदान में है। इस तरह राज्य में भाजपा को रोकने की शुरुआती जिम्मेदारी मायावती के हिस्से में है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की इन सीटों पर आरएलडी का भी प्रभाव है।

आक्रामक मूड में कांग्रेस
सपा-बसपा की ओर से गठबंधन में शामिल नहीं किए जाने के बाद कांग्रेस ने आक्रामक रुख अपनाया है। कांग्रेस ने ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रियंका गांधी वाड्रा को सक्रिय रूप से सीयासी मैदान में उतार दिया है। हालांकि चुनाव प्रबंधन की दृष्टि से कांग्रेस राज्य में बहुत पीछे रही है। प्रियंका भी एक बार प्रवास के बाद लंबं समय तक राज्य में नहीं गईं। दूसरी ओर सहयोगी दलों की ओर से कांग्रेस के ऊपर एसपी-बीएसपी गठबंधन की मदद करने का दबाव भी है। अगर कांग्रेस पूरी ताकत से चुनाव नहीं लड़ी तो उसे कुछ हासिल नहीं होगा। क्योंकि 2014 में भी कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में कुछ हासिल नहीं हो सका था।
हालांकि कांग्रेस ने पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राज बब्बर को मुरादाबाद सीट से चुनाव में उतारा था लेकिन अब उनकी सीट बदलकर फतेहपुर सीकरी कर दी है। मुरादाबाद सीट पर अब नगमा अपनी किस्मत आजमा रही हैं। इसके साथ ही सपा, बसपा और भाजपा से आए नेताओं को पहली, दूसरी और तीसरी सूची में ही टिकट देकर अपनी ओर से चुनावी अखाड़े में उतार दिया है। ताकि पहले से ही उन्हें अपने मतदाताओं तक पहुंचने का समय मिल सके। कांग्रेस ने मूल अपना दल (सोनेलाल पटेल) से हाथ मिलाकर अपने गठबंधन में शामिल कर लिया है। ताकि भाजपा के लिए कुछ मुश्किलें खड़ी की जा सकें।