रासबिहारी/नई दिल्ली
पछले लोकसभा चुनाव के बाद लगातार लगते झटकों के बाद मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकारें बनने के बावजूद अन्य राज्यों में पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी सहयोगी नहीं बना पाए। भारतीय जनता पार्टी ने महाराष्ट्र, बिहार और तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों में एनडीए का कुनबा बढाया। कई राज्यों में क्षेत्रीय दल लोकसभा चुनाव में सीटें न मिलने के बावजूद भाजपा को समर्थन दे रहे हैं। कांग्रेस ने तमिलनाडु, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र और कर्नाटक में गठबंधन किया है। बिहार में कांग्रेस को केवल नौ सीटें ही मिली हैं। झारखंड में जरूर उसे 14 में से आधी सात सीटों मिलने का मौका मिला है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस तरह से पश्चिम बंगाल में भाजपा के साथ वामदलों और तृणमूल कांग्रेस पर हमला बोला, उससे यह तो तय हो गया है कि लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष एकता का नारा बिखर गया है।
कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को हराने के लिए एकजुटता का प्रदर्शन करने वाले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने एक झटके में ही कांग्रेस से गठबंधन करने से इंकार कर दिया। सपा-बसपा गठबंधन ने कांग्रेस के लिए अमेठी और रायबरेली सीट पर उम्मीदवार न उतारने का फैसला भी किया। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 282 और सहयोगी दलों ने 58 सीटें जीती थीं। राजस्थान, गुजरात, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और गोवा में कांग्रेस का पूरी तरह सफाया हो गया था। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 44 सीटें मिली थी। यह लोकसभा में कांग्रेस का अब तक का सबसे कम आंकड़ा था। 543 में 44 सीटें ही जीत पाने के बाद कांग्रेस को कई राज्यों में सत्ता से बेदखल होना पड़ा। 2017 में पंजाब के अलावा 2018 के दिसंबर में कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार बनाई। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 464 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। इस बार यह संख्या कम हो सकती है। कांग्रेस के पास कर्नाटक से नौ और केरल से आठ सीटें थीं। अन्य राज्यों में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत खऱाब रहा। कांग्रेस तीन राज्यों में केवल तीन-तीन सीटें, पांच राज्यों में मात्र दो-दो सीटें और पांच राज्यों में तो एक-एक सीट पर ही सिमट गई। जीती गई 44 सीटों में से कांग्रेस के उम्मीदवार सात सीटों पर दस हजार के कम अंतर से जीते थे। दो सीटों पर जीत का अंतर दो हजार से भी कम रहा। 44 में से 24 सीटें ऐसी थीं जहां भारतीय जनता पार्टी दूसरे नंबर पर रही। देश के कुल 29 राज्य और सात केंद्र शासित प्रदेशों में से 13 राज्य और सभी सात केंद्र शासित प्रदेशों में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पायी थी।
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद देश के राजनीतिक परिदृश्य में बड़ा बदलाव आया है। 2017 में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में सपा के साथ विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ा। अब फिर उत्तर प्रदेश में समीकरण बदल गए हैं। इस समय यूपीए में 21 दल शामिल हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी समर्थन दे रहे हैं पर यूपीए से बाहर हैं। 2014 में यूपीए का सबसे खराब दौर रहा। पिछले लोकसभा चुनाव में यूपीए में कांग्रेस के साथ 12 और दल शामिल थे। केरल में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग, केरल कांग्रेस, सोशलिस्ट जनता पार्टी और आरएसपी के साथ गठबंधन किया था। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन महाराष्ट्र के अलावा गुजरात और गोवा में भी था। बिहार और झारखंड में कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल ने मिलकर चुनाव लड़ा। उत्तर प्रदेश में पिछले लोकसभा चुनाव में रालोद कांग्रेस के साथ था। पिछले पांच साल में यूपीए का कुनबा भी बढ़ा है पर कांग्रेस को मोदा के मुकाबले कमान सौंपने पर मतभेद हैं।
राहुल नहीं सर्वमान्य नेता!
मोदी के मुकाबले कौन? इस पर तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, वामदलों के नेता, राजद के नेता समेत कई दल राहुल गांधी को नेता मानने के लिए तैयार नहीं हैं। कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों के कारण लोकसभा चुनाव में एनडीए और यूपीए गठबंधन के बावजूद चुनाव में त्रिकोणीय मुकाबला होने के आसार हैं। पश्चिम बंगाल में तो मुकाबला चौतरफा होगा। राजनीतिक समीकरणों के बीच यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि लोकसभा की 543 सीटों में से 221 सीटों पर भाजपा-कांग्रेस का मुकाबला क्षेत्रीय दलों से है। उत्तर प्रदेश की 80 सीटों के अलावा कांग्रेस के सामने केरल की 20, पश्चिम बंगाल की 42, ओडिशा 21, आंध्र प्रदेश 25, तेलंगाना की 17, हरियाणा की 10, जम्मू-कश्मीर की पांच और दिल्ली की सात सीटों पर बहुकोणीय मुकाबला होगा। सात राज्यों की 151 सीटों पर कांग्रेस कहीं भी ज्यादा मजबूत हालत में नहीं हैं।
उत्तर प्रदेशः बजेगा प्रियंका का डंका!
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपना दल और एक और छोटे दल के साथ मिलकर अपने दम पर चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी बहन प्रियंका वाड्रा को पार्टी का महासचिव बनाकर पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी हैं। जगह-जगह घूमकर प्रियंका भीड़ तो जुटा रही हैं पर इस भीड़ के वोट में तब्दील होने में संशय है। पूरी ताकत झोंकने के बावजूद कांग्रेस को सभी सीटों पर उम्मीदवार नहीं मिल पाये। ऐसा पिछले पांच लोकसभा चुनावों में भी हुआ कि कांग्रेस सभी 80 सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतार पाई। 2014 में कांग्रेस ने 66 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। इनमें अमेठी और रायबरेली से ही कांग्रेस जीत पाई थी। कांग्रेस के 50 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। कांग्रेस के 14 उम्मीदवार ही अपनी जमानत बचा पाए। 1998 में तो उत्तर पदेश में कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला था और 2009 में पार्टी ने आम चुनाव में 21 सीटें जीती थीं। उपचुनाव में एक सीट जीतकर कांग्रेस 22 सीटों के साथ समाजवादी पार्टी के साथ प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। 2009 में कांग्रेस का वोट प्रतिशत सबसे अधिक 18.5 था। 2004 में कांग्रेस 12 प्रतिशत वोटों के साथ नौ सीटें जीती थी। इससे पहले 1999 में राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन करके कांग्रेस ने 14.72 फीसदी वोट हासिल किए थे और 10 सीटें जीती थी। 1998 के बाद कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका 2014 में ही लगा था। 66 सीटों पर उम्मीदवार उतारने के बावजूद कांग्रेस को केवल 7.5 फीसदी वोट मिले। रायबरेली से काग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी 3,52,713 और अमेठी में राहुल गांधी स्मृति ईरानी से 1,07,903 वोटों से जीत पाए थे। छह सीटों पर कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही। यह अलग बात है कि इन सभी सीटों पर हार जीत का बड़ा अंतर था। सबसे कम अंतर सहारनपुर सीट पर था। यहां इमरान मसूद 65 हजार वोटों से हारे थे। उसके बाद कुशीनगर लोकसभा सीट पर पूर्व मंत्री आरपीएन सिंह 85,540 वोट से हारे थे। वतमान पदेश कांग्रेस अध्यक्ष राजबब्बर गाजियाबाद सीट पर दूसरे स्थान पर रहे, लेकिन वह उत्तर पदेश में सबसे ज्यादा वोटों से हारे थे। भाजपा के जनरल वीके सिंह ने राज बब्बर को 567676 मतों से हराया था। बाराबंकी से पी एल पुनिया 2,11,000 वोटों से हारे थे और कानपुर से श्री प्रकाश जायसवाल 2,22,000 वोटों से चुनाव हारे थे। लखनऊ से राजनाथ सिंह के सामने रीता बहुगुणा 2,72,000 वोटों से चुनाव हारी थीं। खास बात है कि 1998 से 2014 तक कांग्रेस यूपी में 60 से 70 सीटों पर ही उम्मीदवार उतारती रही है।
कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात उसकी वोटों में घटती भागीदारी है। पिछले तीन चुनावों कांग्रेस का वोट घटते हुए सात फीसदी तक आ गया है। 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 11.6 फीसदी और 2017 के विधानसभा चुनाव में 6.25 फीसदी वोट मिले थे। 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 403 सीटों में से 335 पर चुनाव लड़ा था। कांग्रेस ने 28 सीटों पर विजय पाई और 31 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही। 11.6 फीसदी वोट लेकर कांग्रेस उत्तर प्रदेश में चौथे स्थान पर रही। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन किया और 114 सीटों पर चुनाव लड़ा। कांग्रेस के सात उम्मीदवार ही चुनाव जीत पाए। 33 सीटों पर कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही। 6.25 फीसदी वोट लेकर कांग्रेस फिर चौथे स्थान पर रही।
भाजपा का मिलकर मुकाबला करने के लिए 2017 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कांग्रेस को जनाधार के मुकाबले ज्यादा सीटें दीं। यह माना जाता है कि अगर 2012 के विधानसभा चुनाव और पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिले वोटों को आधार बनाया जाता तो ज्यादा से ज्यादा 60 सीटें मिलतीं। सपा ने 114 सीटें दी और कांग्रेस सात ही जीत पाई। 2017 में गठबंधन के बावजूद कांग्रेस सात ही सीट पाई थी। यह बात भी गौर करने वाली है कि गठबंधन के बावजूद 25 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार मैदान में थे। इन सीटों पर कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई बल्कि दूसरा स्थान भी हासिल नहीं कर सकी।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश में अपना आधार बढ़ाने के लिए सपा-बसपा से गठबंधन की उम्मीद थी। मध्यप्रदेश और राजस्थान में समर्थन देने के बावजूद सपा-बसपा ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखा। बसपा अध्यक्ष मायावती ने तो कांग्रेस के खिलाफ पूरा अभियान चला रखा है। सपा-बसपा गठबंधन की ओर से अमेठी और रायबरेली सीटों पर उम्मीदवार न उतारने के ऐलान के बाद कांग्रेस ने सात सीटों पर उम्मीदवार न उतारने की घोषणा की तो मायावती ने जमकर हमला बोला। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर ने ऐलान किया था कि सपा-बसपा-रालोद गठबंधन में भले ही कांग्रेस न हो, लेकिन जिस तरह गठबंधन ने अमेठी व रायबरेली सीट छोड़ी है, उसी परिपाटी को ध्यान में रखकर सात सीटों पर कांग्रेस अपना प्रत्याशी नहीं उतारेगी। यह सीट मायावती, अखिलेश यादव के अलावा रालोद प्रमुख अजीत चौधरी की मुजफ्फरनगर सीट, रालोद उपाध्यक्ष जयंत चौधरी की सीट बागपत, मुलायम सिंह यादव की मैनपुरी, अक्षय यादव की फिरोजाबाद व डिंपल यादव की कन्नौज है। इसपर मायावती ने कहा कि उत्तरप्रदेश समेत पूरे देश में कांग्रेस पार्टी से हमारा कोई भी किसी भी प्रकार का तालमेल व गठबंधन नहीं है। हमारे लोग कांग्रेस पार्टी द्वारा आए दिन फैलाए जा रहे किस्म किस्म के भ्रम में कतई न आएं। मायावती ने तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने की भी चुनौती दी।
उनका कहना था कि सपा-बसपा गठबंधन अकेले भाजपा को पराजित करने में पूरी तरह से सक्षम है। कांग्रेस जबरदस्ती उत्तरप्रदेश में गठबंधन के लिए सात सीट छोड़ने की भ्रांति न फैलाए। अखिलेश यादव ने भी मायावती के सुर में सुर मिलाया और कहा कि राज्य में सपा, बसपा और रालोद गठबंधन भाजपा को हराने में सक्षम है। दरअसल सपा-बसपा के गठबंधन के बावजूद कांग्रेस को दो के बजाय 10 सीटें देने की बात हुई थी पर कांग्रेस ने इंकार कर दिया और उत्तर प्रदेश के प्रभारी गुलाम नबी आजाद ने सभी 80 सीटों पर लड़ने का ऐलान कर दिया। इस बार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन मिलने की उम्मीद लग रही है। तीन राज्यों में जीतने के बाद राहुल गांधी के हौसले ज्यादा बढ़े हैं। सपा-बसपा गठबंधन और भाजपा का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश में अपना दल के साथ गठबंधन किया है और उसे दो सीटें दी हैं। केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल के अपना दल (एस) के भाजपा के साथ तालमेल होने के एक दिन बाद उनकी मां कृष्णा पटेल की अगुवाई वाले अपना दल ने कांग्रेस से हाथ मिलाया है। राहुल गांधी, महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा एवं ज्योतिरादित्य सिंधिया से मुलाकात की जिसमें गठबंधन को अंतिम रूप दिया गया। गठबंधन के तहत कांग्रेस ने अपना दल को दो सीटें- गोंडा और बस्ती दी हैं। वर्ष 2014 में भाजपा के ही साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाले अपना दल को मिर्ज़ापुर और प्रतापगढ़ लोकसभा सीटों पर जीत मिली थी। इसके अलावा कांग्रेस ने महान दल से भी समझौते का ऐलान किया है।
भाजपा को गठबंधन की चुनौती
यह भी अनुमान जताये जा रहे हैं कि 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा का ग्राफ कम होता जा रहा है। मोदी लहर में 80 में से 73 सीटें जीतने वाले एनडीए के सामने सपा-बसपा गठबंधन मुख्य चुनौती है। मुख्यमंत्री योगी के राज में मोदी लहर को लगातार झटके लगे हैं। लोकसभा उपचुनाव में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन भाजपा को जबरदस्त झटका दिया। उपचुनाव में मिली सफलता से ही राज्य में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन की शुरुआत हुई है। उपचुनाव में भाजपा योगी के गढ गोरखपुर में भी चुनाव हार गई। सपा-बसपा गठबंधन की घोषणा के समय से ही यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस साथ होती तो भाजपा को बहुत मुश्किल होती। कांग्रेस ने वैसे दमदार उम्मीदवार देने का ऐलान किया है। उत्तर प्रदेश में भाजपा, सपा-बसपा और कांग्रेस के त्रिकोणीय मुकाबले में कौन बाजी मारेगा, यह तो चुनाव नतीजे ही बता पाएंगे पर इतना कहा जा सकता है ऐसे में भाजपा को ही फायदा होगा। कांग्रेस दम दिखाने का दावा तो कर रही है लेकिन अमरोहा से घोषित उम्मीदवार राशिद अल्वी ने चुनाव लड़ने से ही इनकार कर दिया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राशिद अल्वी ने इसके पीछे कोई खास वजह नहीं बताई है। लेकिन सूत्रों के अनुसार वह टिकट मिलने पर देरी के चलते पार्टी नेतृत्व से नाराज थे। अब सचिन चौधरी को कांग्रेस ने अमरोहा सीट से उम्मीदवार बनाया है। कांग्रेस के कई नेता भी नाराज बताए जा रहे हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद के कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने की खबर आई थी। जितिन प्रसाद ने बाद में इससे इनकार भले ही कर दिया हो लेकिन दबी आवाज में बताया जा रहा है कि जितिन प्रसाद इस बार अपनी परंपरागत सीट धौरहरा से चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे। एक तरफ कांग्रेस दमदार उम्मीदवार देने की बात कर रही है और दूसरी तरफ बड़े नेता ही चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं।
महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना फिर साथ
उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र में लोकसभा की सबसे ज्यादा 48 सीटें हैं। महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन से मुकाबला करने के लिए 56 दलों ने महागठबंधन बनाया है। सभी दलों के नेताओं ने एक साथ भाजपा-शिवसेना को सत्ता से हटाने की प्रतिबद्धता जताई। महाराष्ट्र की 48 लोकसभा सीटों पर भाजपा-शिवसेना गठबंधन का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस-राकांपा के नेतृत्व में संयुक्त पुरोगामी महाआघाड़ी का गठन किया गया है, जिसमें 56 दल शामिल हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव के लिए सीटों का बंटवारा पांच दलों में ही हुआ है। इनमें कांग्रेस 24, राकांपा 20, स्वाभिमानी शेतकरी संगठन दो, बहुजन विकास आघाड़ी एक और युवा स्वाभिमान पक्ष एक सीट पर चुनाव लड़ेंगे। महाराष्ट्र में सपा-बसपा गठबंधन ने मिलकर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। महाराष्ट्र में भी सपा-बसपा ने कांग्रेस से गठबंधन करने से इंकार किया है और मायावती ने साफतौर पर कहा है कि बसपा का किसी भी राज्य में कांग्रेस से कोई तालमेल नहीं हैं। कांग्रेस ने महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन का मुकाबला करने के लिए बसपा को दो और सपा को एक सीट देने का प्रस्ताव दिया था।
कांग्रेस ने इससे पहले प्रकाश आंबेडकर और एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी को भी इस दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने के लिए साथ लाने का प्रयास किया। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी प्रकाश आंबेडकर को ज्यादा सीटें देन के लिए तैयार नहीं थी। कांग्रेस महाराष्ट्र की आबादी में 11.5 फीसदी मुस्लिम और सात फीसदी दलित मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रही है। सपा-बसपा के अलग रहने के कारण यहां भी कांग्रेस की रणनीति को झटका लग सकता है। कांग्रेस के नेताओं की अन्दरूनी लड़ाई का भी चुनाव पर असर पड़ रहा है। नाराजगी के कारण कई नेता कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में भाजपा ने 23, शिवसेना ने 18, राकांपा ने चार और कांग्रेस ने दो सीटें जीती थीं। अपनी कमजोर हालात के कारण कांग्रेस को बार-बार राकांपा से गठबंधन करना पड़ रहा है। सहाकारी संगठनों में प्रभावी भूमिका के बावजूद कांग्रेस अपनी ताकत नहीं दिखा पा रही है।
पश्चिम बंगालः चौतरफा मुकाबला, अलग राहें
लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल की भी बड़ी भूमिका है। तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। कांग्रेस के मुकाबले ममता बनर्जी इस मामले में बड़ी भूमिका में दिखना चाहती हैं। केंद्र सरकार के खिलाफ कोलकाता में एक विशाल रैली में विपक्षी नेताओं को बुलाकर उन्होंने यह जताने की कोशिश भी की। पिछले लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल की 42 सीटों में से तृणमूल कांग्रेस ने 34, कांग्रेस ने चार, माकपा और भाजपा ने दो-दो सीटें जीती थी। पश्चिम बंगाल के कांग्रेस के नेताओं की राय को मानते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने तृणमूल कांग्रेस से तालमेल की कोशिश नहीं की। ममता बनर्जी ने सभी 42 सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं। कांग्रेस और वामोर्चा लगातार गठबंधन की बात कर रहे हैं पर सीटों को लेकर तनातनी जारी रही है।
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस अपनी नीतियों के कारण जनाधार खोती जा रही है। भाजपा का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस कभी तृणमूल कांग्रेस तो कभी वाममोर्चा का साथ लेने का प्रयास करती रही। राज्य में तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाने की कोशिश तो कर रही है पर उसे लोगों का समर्थन नहीं मिल रहा है। कांग्रेस ने वामोर्चा से अपने सभी मतभेद छोड़कर तालमेल करने की बात भी की। वाममोर्चा से गठबंधन के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पश्चिम बंगाल के नेताओं की राय के खिलाफ कांग्रेस की दो पारंपरिक सीटों से अपना दावा भी छोड़ा। माकपा ने कांग्रेस से गठबंधन पर मोहर लगाते हुए बयान जारी किया था। राहुल गांधी ने पश्चिम बंगाल की रैली में ममता बनर्जी और भाजपा के साथ ही वाममोर्चा को निशाना बनाया। इसके बाद कांग्रेस और वामदलों के गठबंधन की संभावना खत्म हो गई है। पश्चिम बंगाल कांग्रेस ने सभी 42 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी और साथ वाम मोर्चे द्वारा छोड़ी गई चार सीटों को भी ठुकरा दिया है। कांग्रेस की तरफ से उम्मीदवारों की सूची भी जारी कर दी गई। इससे पहले वाममोर्चा ने भी उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी थी। अब ज्यादातर सीटों पर मुकाबला चौकोणीय होने के कारण तृणमूल कांग्रेस और भाजपा को फायदा हो सकता है। पिछले लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को 39.05 फीसदी, वामदलों को 29.71, भाजपा को 16.80 तथा कांग्रेस को 9.58 फीसदी वोट मिले थे। राज्य में कांग्रेस के मुकाबले तृणमूल और भाजपा का मत प्रतिशत बढ़ा है। कांग्रेस के साथ ही वामदलों का मत प्रतिशत भी कम हुआ है। इसमें कोई शक नहीं है कांग्रेस के मुकाबले भाजपा बड़ी ताकत बनकर उभर रही है। वाम मोर्चा में माकपा के अलावा 10 पार्टियां शामिल हैं। इनमें ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक (एआईएफबी), रिवोलुशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी) और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (भाकपा) शामिल हैं जो इसके अहम घटक हैं जो राज्य में लोकसभा चुनाव लड़ते हैं। माकपा और वाम मोर्चा ने बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से 2014 के चुनाव में केवल दो सीटों पर ही जीत हासिल की थी।
बिहार में गठबंधन के हाथ ताला-चाबी
भाजपा-जदयू-लोजपा गठबंधन के मुकालबे बिहार में विपक्षी महागठबंधन ने राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस के लिए नौ सीटें छोड़ी हैं। राष्ट्रीय जनता दल 20, उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा को पांच सीट, जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) सेक्युलर और मुकेश साहनी की पार्टी वीआईपी को तीन-तीन सीटें मिली हैं।
पिछले लोकसभा चुनाव के बाद राज्य के राजनीतिक समीकरण कई बार बदलें हैं। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले जदयू ने भाजपा से नाता तोड़ लिया और अकेले चुनाव लड़ा था। एनडीए में उस समय साथ रही रालोसपा अब विपक्षी महागठबंधन का हिस्सा है। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम को देखें तो एनडीए का प्रदर्शन शानदार रहा था। 2014 में भाजपा 30 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और 22 सीटों पर जीत हासिल की। इसी तरह लोजपा ने सात में से छह पर जीत दर्ज की। कांग्रेस 12 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। उसे मात्र दो सीटों पर जीत हासिल हुई थी, जबकि 27 सीटों पर चुनाव लड़ने वाले राजद को मात्र चार पर ही जीत हासिल हुई थी। जदयू 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन उसे दो सीट पर ही जीत मिली। भाजपा ने आरा, औरंगाबाद, बेगूसराय, बक्सर, दरभंगा, गया, झंझारपुर, मधुबनी, महाराजगंज, मुजफ्फरपुर, नवादा, पश्चिम चम्पारण, पाटलिपुत्र, पटना साहिब, गोपालगंज, पूर्वी चम्पारण, सारण, सासाराम, शिवहर, सीवान, उजियारपुर व वाल्मिकीनगर सीट जीती थी। लोजपा ने हाजीपुर, जमुई, समस्तीपुर, वैशाली, मुंगेर व खगड़िया में कामयाबी पाई थी। राजद के उम्मीदवार भागलपुर, बांका, अररिया व मधेपुरा। रालोसपा ने काराकाट, सीतामढ़ी व जहानाबाद की सीट जीती। जदयू के उम्मीदवार केवल पूर्णिया व नालंदा सीट ही जीत पाए। कांग्रेस ने किशनगंज और सुपौल की सीटें जीतीं। राकांपा के तारिक अनवर कटिहार से विजयी हुए। तानिक अनवर अब कांग्रेस में शामिल हो गए हैं और पार्टी के उम्मीदवार हैं। कांग्रेस को महागठबंधन में बने रहने के लिए बड़ी कुर्बानी देनी पड़ी है। 1990 से पहले कांग्रेस कुछ समय छोड़कर लगातार सत्ता में रहीं। अब हालत यह है कि कांग्रेस का वोट प्रतिशत लगातार कम होता जा रहा है।
1999 लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को 8.81 फीसदी, 2000 विधानसभा में 11.1 फीसदी, 2005 के विधानसभा में 6.09 फीसदी, 2009 के लोकसभा चुनाव 10.26 फीसदी, 2010 के विधानसभा चुनाव में 8.30 फीसदी, 2014 के लोकसभा चुनाव में 8.40 फीसदी और 2105 विधानसभा चुनाव में 6.7 फीसदी वोट मिले। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को 24.4, एलजेपी 4.8 और जेडीयू 16.8 फीसदी वोट मिले थे। राजद को 18.4, जीतनराम मांझी की पार्टी हम के 2.3, उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी के 2.6 वोट मिले थे। विधानसभा चुनाव के वोट प्रतिशत के लिहाज से एनडीए की हालत महागठबंधन पर भारी पड़ती दिखाई दे रही है।
झारखंड में सात सीट पर सिमटा दायरा
भाजपा ने झारखंड में आजसू से तालमेल किया है। विपक्षी दलों ने गठबंधन से राज्य की राजनीतिकक समीकरण बदल दिए हैं। गठबंधन की राजनीति से नाराज होकर राजद की झारखंड अध्यक्ष अन्नापूर्णा देवी भाजपा में शामिल हो गईं। कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोर्चा और झारखंड विकास मोर्चा (जेवीएम) मिलकर राज्य की 14 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। कांग्रेस सात, जेएमएम चार और जेवीएम दो सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेंगे। इसके अलावा राजद के लिए एक सीट पलामू छोड़ी गई है। साल 2014 की ’मोदी लहर’ में भाजपा ने झारखंड में अपने 14 में से 12 सीटें जीती थीं और शेष दो सीटें मुख्य विपक्षी झारखंड मुक्ति मोर्चा की झोली में गई थीं। कांग्रेस रांची, खूंटी, लोहरदगा, सिंहभूम, हजारीबाग, धनबाद और चतरा से उम्मीदवार उतारेगी तो झारखंड मुक्ति मोर्चा दुमका, राजमहल, गिरिडीह और जमशेदपुर में मैदान में होगी। बाबूलाल मरांडी की पार्टी जेवीएम के उम्मीदवार कोडरमा और गोड्डा तथा राजद पलामू से लड़ेगी। माना जा रहा है कि इस बार राज्य में विपक्षी गठबंधन एनडीए पर भारी पड़ सकता है।
दक्षिणः केरल और कर्नाटक पर निगाहें
दक्षिण के पांच राज्यों – तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, केरल और तेलंगाना में लोकसभा की 129 सीटें हैं। इनमें भाजपा ने 2014 में 21 सीटें जीती थीं। इस बार भाजपा ने कम से कम 50 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है। उत्तर भारत की चुनौती को भाजपा दक्षिण से पूरा करेगी।
तमिलनाडु- पार्टी में अंतर्कलह
दक्षिण भारत में लोकसभा की सबसे ज्यादा सीटें तमिलनाडु में हैं। तमिलनाडु की 39 सीटों के लिए भाजपा ने अन्नाद्रमुक समेत कुछ दलों से समझौता किया है। तमिलनाडु में पिछली बार भाजपा एस रामदौस की पीएमके (पट्टाली मक्कल काची) और अभिनेता से नेता बने विजयकांत की डीएमडीके (देसीय मुरपोक्कू द्रविड़ार कड़गम) समेत कुछ और दलों के साथ मिलकर मैदान में थी। तब भाजपा छह सीटों पर चुनाव लड़ी। इनमें से उसने सिर्फ एक सीट (कन्याकुमारी) जीती। वह तीन सीटों- वेल्लोर, कोयंबटूर, पोल्लाची पर दूसरे नंबर पर रही। एक सीट पीएमके को मिली। लेकिन उसने कुछ समय बाद भाजपा का साथ छोड़ दिया था। पिछले लोकसभा चुनाव के बाद राज्य में राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं। लंबे समय तक तमिलनाडु की राजनीति में जमे रहे एम करुणानिधि और जयललिता अब जीवित नहीं हैं। पिछले चुनाव में दोनों अपने दलों द्रमुक (द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) और अन्नाद्रमुक (अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) की अगुवाई की थी। तब तक हर बार की तरह मतदाता भी इन्हीं दोनों में से किसी एक को एकतरफा वोट कर रहे थे। 2014 में एआईएडीएमके को 37 सीटें मिली थीं। करुणानिधि के निधन के बाद डीएमके की कमान करुणानिधि के पुत्र एमके स्टालिन के हाथ में है। उन्हें उनके बड़े भाई एमके अलागिरी ही चुनौती देते रहते हैं। जयललिता के बाद एआईएडीएमके की अगुवाई उपमुख्यमंत्री ओ पन्नीरसेल्वम और मुख्यमंत्री ईके पलानिसामी मिलकर संभाल रहे हैं। पिछले चुनाव में द्रमुक को कोई सीट नहीं मिली थी। अन्नाद्रमुक-भाजपा गठबंधन के मुकाबले अब कांग्रेस द्रमुक के साथ मिलकर चुनाव लड़ेगी। गठबंधन में सीपीआईएम को दो सीटें दी गई हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और विदुथलाई चिरुथिगाल काची को दो-दो सीटें दी गई हैं। इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, इंदिआ जननायगा काची (आईजेके), कोंगुनाडु मक्कल देसिया काची को गठबंधन में एक-एक सीट दी गई है। कांग्रेस को तमिलनाडु की नौ और पुडुचेरी की एक लोकसभा सीट दी है। कांग्रेस में उम्मीदवार घोषित होते ही विरोध भी शुरु हो गया है। सबसे ज्यादा नाराजगी शिवगंगा लोकसभा सीट से पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम के बेटे कार्ति चिदंबरम को लेकर हो रही है। यहां से चुनाव लड़ने की दावेदारी कर रहे कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री ईएम सुदर्शन नचियप्पन कांग्रेस आलाकमान के फैसले से खफा हैं। नचियप्पन ने कहा है कि चिदंबरम परिवार से लोग ‘नफरत’ करते हैं। नचियप्पन का कहना है कि आलाकमान के इस फैसले ने पार्टी को मुश्किल में डाल दिया है। उन्होंने कार्ति के लिए कहा कि वे अदालती मुकदमों का सामना कर रहे हैं।
कर्नाटक में पार्टी को फायदे का सौदा!
दक्षिण भारत में सीटों के लिहाज़ से कर्नाटक ऐसा दूसरा बड़ा राज्य है जहां भाजपा का मजबूत जनाधार है। भाजपा ने 2014 में यहां 17 सीटें जीती थीं और आठ सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी। पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को 104 सीटें मिलीं और वह विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी। राज्य में जेडीएस (जनता दल-सेकुलर)- कांग्रेस मिलकर सरकार चला रहे हैं। सरकार चलाने में रोजाना की खींचतान के बावजूद कांग्रेस ने जेडीएस से गठबंधन किया है। कर्नाटक में कांग्रेस 20 और जेडीएस आठ सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगी। कई हफ्तों तक इसे लेकर चली बातचीत में खींचतान के बाद राज्य में सत्तारूढ़ गठबंधन ने आगामी आम चुनावों के लिए सीट बंटवारा हुआ। जेडीएस उत्तर कन्नड, चिक्कमंगलूर, शिवमोगा, तुमकुर, हासन, मांडया, बेंगलुरू उत्तर और विजयपुर सीट से अपने उम्मीदवार उतारेगी। 2014 के आम चुनावों में जेडीएस ने हासन और मांडया लोकसभा सीट जीती थी। कांग्रेस ने नौ सीटें और भाजपा ने 17 सीटें जीती थी। उपचुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को हराकर बेल्लारी सीट कब्जा कर ली थी। जेडीएस प्रमुख एचडी देवगौड़ा ने कांग्रेस से 28 में से 12 सीटें मांगी थी पर उसे आठ ही मिल पाई। 2018 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस और जेडीएस ने एक-दूसरे के खिलाफ लड़ा था। लेकिन चुनाव नतीजों में त्रिशंकु रहने पर दोनों दलों ने सरकार बनाने के लिए हाथ मिला लिया। जेडीएस को जो आठ सीटें मिली हैं उनमें हासन और मांडया अभी पार्टी के पास हैं, जबकि तुमकुर फिलहाल कांग्रेस के पास है। शेष पांच पर भाजपा के उम्मीदवार जीते थे। सीट बंटवारे के बावजूद जेडीएस और कांग्रेस में टकराव है। देश के पूर्व पीएम और जनता दल सेक्युलर के संस्थापक एच डी देवगौड़ा ने राज्य के तुमकुर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने का ऐलान किया था। तुमकुर सीट कांग्रेस के पास है, यहां से मुद्दाहनुमेगौड़ा सांसद हैं। गठबंधन फार्मूले के तहत ये सीट जेडीएस के खाते में गई है।
आंध्र प्रदेशः अस्तित्व बचाने का संकट
आंध्र प्रदेष में पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा और तेलुगू देशम पार्टी मिलकर चुनाव लडे थे। भाजपा ने दो सीटों- विशाखापट्टनम और नरसापुरम पर जीत हासिल की थी और तिरुपति और राजमपेट में वह दूसरे नंबर पर रही। लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव में भाजपा-टीडीपी को सफलता मिली। दोनों दलों ने मिलकर सरकार भी बनाई। केंद्र सरकार पर आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्ज़ा न देने का आरोप लगाते हुए टीडीपी ने पिछले साल फरवरी-मार्च में भाजपा से अपना नाता तोड़ लिया था। भाजपा भी टीडीपी के नेतृत्व वाली आंध्र प्रदेश सरकार से हट गई। तेलंगाना में विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ने के बाद कांग्रेस और टीडीपी के रास्ते अलग हो गए हैं। आंध्र में कांग्रेस 25 लोकसभा और 175 विधानसभा सीटों पर अलग चुनाव लड़ रह ही है। आंध्र में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हो रहे हैं। तेलंगाना विधानसभा की 119 सीटों में से टीआरएस को 88 सीटों पर जीत मिली जबकि कांग्रेस सिर्फ 19 और टीडीपी केवल दो ही सीटें जीत पायी। तेलंगाना में टीडीपी के खराब प्रदर्शन की वजह से ही कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश में उसके साथ नहीं जाने का मन बनाया है। कांग्रेस को लगता है कि आंध्र प्रदेश में सरकार के प्रति रोष का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ सकता है, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व में टीडीपी की सरकार है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जो देने के मुद्दा बनाया है। आंध्र प्रदेश में किसी भी दल का किसी भी पार्टी के साथ कोई गठबंधन नहीं है। मुख्य मुकाबला जगन मोहन रेड्डी और चंद्रबाबू नायडू की पार्टी के बीच ही है। कांग्रेस और भाजपा दोनों राष्ट्रीय पार्टियां अपना वजूद बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। एक समय आंध्र प्रदेश कांग्रेस का सबसे मजबूत दुर्ग हुआ करता था।
केरलः मुकाबला जबरदस्त है
केरल दक्षिण का ऐसा राज्य है जहां भाजपा को अब तक लोकसभा चुनाव में कोई सफलता नहीं मिली है। केरल में कांग्रेस और वाम दलों के नेतृत्व वाले गठबंधनों के बीच ही मुकाबला होता आया है। देशभर में नरेंद्र मोदी की लहर के बावज़ूद भाजपा यहां 2014 में एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। कांग्रेस नेता और विदेश राज्य मंत्री रहे शशि थरूर के खि़लाफ़ तिरुवनंतपुरम में ज़रूर भाजपा दूसरे नंबर पर रही। केरल में भाजपा अपना मत प्रतिशत बढ़ाने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस केरल की 20 लोकसभा सीटों में से 16 पर चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस ने चार सीटें सहयोगी दलों के लिए छोड़ी है। केरल की वायनाड सीट से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी चुनाव लड़ रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में माकपा नीत एलडीएफ ने कांग्रेस नीत यूडीएफ को करारी शिकस्त देते हुए बहुमत के साथ केरल की सत्ता फिर हासिल थी। भाजपा ने भी राज्य विधानसभा में अपना खाता खोलकर इतिहास रच डाला। एलडीएफ ने 140 विधानसभा सीटों में से 83 सीटों पर जीत दर्ज की है। यूडीएफ को 47 और भाजपा तथा निर्दलीय को एक एक सीट मिली थीं। भाजपा राज्य में 14 सीटों पर प्रत्याशी उतारेगी जबकि भारत धर्म जन सेना या बीडीजेएस पांच सीटों पर और पीसी थॉमस की अगुवाई वाली केरल कांग्रेस एक सीट पर चुनाव लड़ेगी। तिरूवनंतपुरम से कांग्रेस के शशि थरूर के खिलाफ मिजोरम के पूर्व राज्यपाल कुम्मनम राजशेखरन को भाजपा का प्रत्याशी बनाया गया है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने आठ, माकपा ने पांच, मुस्लिम लीग ने एक, आएसपी ने एक, केरल कांग्रेस ने एक, भाकपा ने एक दो निर्दलीयों ने जीत हासिल की थी।
तेलंगानाः ज्यादा की उम्मीद नहीं!
लोकसभा की 17 सीटों वाले राज्य तेलंगाना में कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में बड़ा झटका लगा है। तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) तेलंगाना में लोकसभा चुनाव न लड़ने का ऐलान किया है। टीडीपी के कई शीर्ष नेता पार्टी छोड़कर तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) में शामिल हो गए हैं और बाकी नेता चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं हैं। कांग्रेस सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में तेलुगु देशम पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन सिर्फ 21 सीटें ही जीत पाया। इससे पहले चुनाव में कांग्रेस ने अकेले ही 21 सीटें जीती थीं। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने दो सीट जीती थी। कांग्रेस के एक सांसद टीआरएस में शामिल हो गए हैं। सत्तारूढ़ टीआरएस के अभी 14 सांसद हैं। पार्टी लोकसभा में 11 सीटें ही जीती थीं, लेकिन बाद में टीडीपी, वायएसआर कांग्रेस और कांग्रेस का एक-एक सांसद टीआरएस में शामिल हो गए थे। पार्टी का लक्ष्य 16 सीट जीतने का है। ऐसे में तेलंगाना में कांग्रेस को ज्यादा फायदा होता नहीं दिख रहा है।
उत्तर पूर्व में कमजोर होती कांग्रेस
उत्तर पूर्व के राज्यों में कांग्रेस कभी बहुत मजबूत हुआ करती थी। पिछले साल दिसंबर में कांग्रेस राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में जीती पर अपने मजबूत गढ़ मिजोरम में विधानसभा चुनाव हार गई। मिजोरम में तो कांग्रेस लगातार दो बार से सत्ता में थी वहां पार्टी की ना सिर्फ करारी हार हुई है बल्कि यह हार कई मायनों में ऐतिहासिक भी है। उत्तर पूर्व के सात राज्यों की 25 सीटों में से कांग्रेस ने आठ सीटें जीती थीं। अब इन सीटों को बचाने के लिए कांग्रेस को कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। अरुणाचल प्रदेश की दो सीटों में एक पर कांग्रेस और एक पर भाजपा जीती थी। असम की 14 सीटों में से भाजपा ने सात, कांग्रेस ने तीन, एआईडीयूएफ ने तीन और एक सीट निर्दलीय ने जीती थी। मणिपुर की दोनों सीट पर कांग्रेस, मेघालय की दो सीटों में से एक पर कांग्रेस और एक पर एनपीपी जीती थी। मिजोरम की इकलौती सीट पर भी कांग्रेस का कब्जा है। नगालैंड की लोकसभा सीट एनपीपी के पास है। त्रिपुरा की दोनों सीटों पर माकपा ने जीत हासिल की थी। कांग्रेस ने असम, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल और मिजोरम में सत्ता खो दी। त्रिपुरा माकपा के हाथ से फिसल कर भाजपा के कब्जे में चला गया। असम में कांग्रेस नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजंस को मुद्दा बना रही है।
ओडिशा में खिसकता आधार
ओडिशा में कुल 21 लोकसभा सीटें हैं। राज्य में बीजद, भाजपा और कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ रही हैं। पिछले चुनाव में बीजद ने 19 और भाजपा ने दो सीटों पर जीत हासिल की थी। इस बार मुकाबले में भाजपा कांग्रेस से ज्यादा भारी दिखाई दे रही है। राज्य में लोकसभा के साथ ही विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में बीजद ने 147 सीटों में से 117 पर कामयाबी पाई। कांग्रेस और भाजपा क्रमशः 16 और 10 सीटें मिली। 2009 के विधानसभा चुनाव में बीजद को 103, कांग्रेस को 27 और भाजपा को छह सीट मिली थीं। 2009 के चुनाव में राकांपा को चार सीटें मिली थी, भाकपा को एक सीट मिली थी जबकि छह सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों को मिली थी। सभी चुनाव सर्वेक्षणों को गलत साबित करते हुए बीजद ने 2000 से सत्ता में रहने के बावजूद पिछली बार के मुकाबले 14 और सीटें हासिल की जबकि कांग्रेस को 11 सीटों का नुकसान हुआ है। भाजपा को सिर्फ चार सीटों का फायदा हुआ। इसे 2009 में 103 सीटें मिली थी, 2014 में यह बढ़कर 117 हो गई। वर्ष 2000 और 2004 में इसके पास 68 और 61 सीटें थी। उस वक्त भाजपा के साथ उसका गठजोड़ था। लोकसभा में बीजद की सीटें 1998 में नौ सीटों से बढ़कर 1999 में 10 और 2004 में 12 तथा 2009 में 14 हो गई। अब नवीन पटनायक की पार्टी ने राज्य की 21 संसदीय सीटों में 20 सीटें हासिल की है। नवीन पटनायक चार बार मुख्यमंत्री हैं। कांग्रेस के कई विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं।
तीन विधायक नवल किशोर दास, जोगेश सिंह और कृष्णा चंद्र सागरिया कांग्रेस से इस्तीफा दे चुके हैं। दास और सिंह बीजद में शामिल हो गए हैं जबकि सागरिया ने बसपा का दामन थामा है बेहरा ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को पत्र लिखकर कहा कि उन्होंने ओडिशा प्रदेश कांग्रेस समिति (ओपीसीसी) नेतृत्व द्वारा उन्हें ‘‘नजरअंदाज’’ किए जाने के बाद पार्टी से इस्तीफा देने का फैसला किया है।