कोई ‘महबूबा’ ऐसी तो नहीं होती!

-हाथ मिलाने को मजबूर हुए ‘‘तिरंगे को कोई कंधा देने वाला नहीं रहेगा’’ कहने वाले नेता
-1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी किया था शेख अब्दुल्ला को मजबूर
                      हीरेन्द्र सिंह राठौड़

‘महबूबा’ अब भी आंखें दिखा रही हैं। हालांकि उनकी सारी हेकड़ी धरी की धरी रह गई है। यह वही महबूबा हैं जिन्होंने कभी कहा था कि ‘‘हाथ ही नहीं बल्कि पूरा जिस्म जलकर राख हो जायेगा’’, ‘‘तिरंगे को कोई कंधा देने वाला नहीं रहेगा’’ और ‘‘नई दिल्ली हाथ जोड़ेगा’’। लेकिन जैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कश्मीरी नेताओं को बातचीत के लिए बुलावा भेजा, महबूबा उन 14 नेताओं में शामिल होकर दौड़ी चली आईं, जो 24 जून को दिल्ली में हुई सर्वदलीय बैठक में शामिल थे। नेशनल कांफ्रेंस के मुखिया वो फारूख अब्दुल्ला भी अपने बेटे और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के साथ दौड़े चले आये जिन्होंने जम्मू-कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद चाइना से हस्तक्षेप की उम्मीद की थी।
पीएम मोदी ने जम्मू-कश्मीर के मसले पर सर्वदलीय बैठक बुलाई और इसमें राज्य के 14 नेताओं को आमंत्रित किया, इनमें जम्मू-कश्मीर के 4 पूर्व मुख्यमंत्री भी शामिल हैं। एक भी नेता ऐसा नहीं था जो इस बैठक में शामिल नहीं हुआ हो। कारण है कि जम्मू-कश्मीर के नेताओं के पास इस समय दूसरा कोई विकल्प नहीं बचा है। महबूबा हों या फिर फारूख या फिर उमर अब्दुल्ला, सभी की स्थिति एक जैसी है। क्योंकि इनमें से कोई भी बिना चुनाव लड़े या फिर सत्ता या विपक्ष के बिना नहीं रह सकता। मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर के नेताओं के गले में ऐसी घंटी बांधी है जिसे वह अपनी मर्जी से बजा भी नहीं सकते।
महबूबा मुफ्ती भारत के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर रही हैं। राज्य की सत्ता में बीजेपी से अलग होने के बाद से वह पाकिस्तान के पक्ष में ज्यादा बयानबाजी करती रही हैं। वह आतंकवाद के मामले में उसके खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई का समर्थन करने के बजाय हमेशा पाकिस्तान के साथ बातचीत करने पर जोर देती रही हैं। कुछ हद तक यही नजरिया फारूख अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला का रहा है। लेकिन मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 और 35-ए हटाकर राज्य के नेताओं को 1975 से भी बुरी स्थिति में ला दिया है।
1975 से पहले फारूख अब्दुल्ला के पिता शेख अब्दुल्ला भी भारत सरकार और प्रधानमंत्री को आंखें दिखाया करते थे। उन्होंने भारत विरोधी बयानबाजी करके जम्मू-कश्मीर के लोगों में खासा समर्थन प्राप्त कर लिया था। उस समय पाकिस्तान और बांग्लादेश एक ही हुआ करते थे। लेकिन इंदिरा गांधी ने पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच युद्ध में पूर्वी पाकिस्तान यानी कि बांग्लादेश का साथ दिया और पश्चिमी पाकिस्तान यानी कि वर्तमान पाकिस्तान को बुरी तरह से हार मिली। ऐसे में शेख अब्दुल्ला की समझ में भी आ गया था कि अब भारत को आंखें दिखाने के बजाय भारत के साथ रहने में ही फायदा है। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और शेख अब्दुल्ला के दूतों के बीच लिखित समझौता हो गया था।
इसके पश्चात ही शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बन पाये थे। कुछ वैसी ही तस्वीर अब उभर कर आ रही है। बैठक में पीएम मोदी ने उन्हें यह संदेश भी दे दिया है कि विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन के पश्चात ही जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जा सकता है। भले ही महबूबा और उमर अब भी पाकिस्तान से बातचीत और धारा 370 को हटाने के फैसले को नहीं मानने की बात कर रहे हों। लेकिन अब उनकी समझ में यह अच्छी तरह से आ गया है कि जम्मू-कश्मीर भारत का ही हिस्सा है और मुखालफत की बातें करने से कश्मीरी नेतओं को नुकसान ही होगा।
पीएम मोदी ने निमंत्रण दिया तो सियासी मौसम इतना गर्म हुआ कि कश्मीर की वादियों में जमी बर्फ पिघलने लगी। कल तक जो कल तक जो दिल्ली को आंखें दिखाते थे और सीधे मुंह बात तक नहीं करते थे, वह कश्मीर से दिल्ली तक हाथ मिलाने के लिए दौड़े चले आये। दिल्ली के साथ इस मुलाकात में कश्मीरी नेता दिल नहीं मिला पाये हैं। यह बात उनके बयानों से साफ जाहिर हो रही है। लेकिन उनकी नीयत और सियासी सोच पर सवाल तो उठते ही हैं कि ‘कोई महबूबा ऐसी तो नहीं होती’ जो अपने हमदम के बजाय गैरों की तारीफ में कसीदे पढ़ती हो?