अब हरियाणा कांग्रेस में दरार… हुड्डा का ‘भूप’ बनने का सपना होगा साकार!

-19 कांग्रेसी विधायकों ने खोला प्रदेश नेतृत्व के खिलाफ मोर्चा

एसएस ब्यूरो/ नई दिल्ली
केद्र की सत्ता से दूर चल रही कांग्रेस की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। राजस्थान और पंजाब के बाद अब हरियाणा कांग्रेस में भी दरार पड़ गई है। पार्टी के 19 विधायकों ने प्रदेश नेतृत्व के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। पार्टी की सत्ता वाले दो प्रदेशों के बाद हरियाणा में विपक्ष में बैठी कांग्रेस पार्टी में भी बगावत के सुर सुनाई देने लगे हैं। कांग्रेस के 19 विधायकों ने सूबे में नेतृत्व बदलने की मांग की है। इन सभी विधायकों ने दिल्ली दरबार में पहुंचकर कांग्रेस हरियाणा प्रभारी विवेक बंसल के यहां हाजिरी लगाई। खास बात है कि इन सभी 19 विधायकों को पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा का समर्थक बताया जा रहा है।

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कांग्रेस से जुड़े सूत्रों का कहना है कि इससे भी बड़ी बात यह है कि इन विधायकों ने प्रदेश प्रभारी के साथ हुई बैठक में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुमारी शैलजा को हटाकर भूपिंदर सिंह हुड्डा को अध्यक्ष बनाने की मांग की है। उन्होंने इस बैठक में यह भी कहा कि हरियाणा में पिछले आठ साल से पार्टी के पास जिलाध्यक्ष तक नहीं है। गौरतलब है कि कांग्रेस पार्टी हरियाणा में 2014 से सत्ता से दूर है। फिलहाल उसके पास यहां कुल 31 विधायक हैं।

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हालांकि हरियाणा के कांग्रेसी विधायकों के साथ मुलाकात के बाद पवन बंसल ने कहा कि कोरोना महामारी के चलते लंबे समय से विधायकों से मुलाकात नहीं हुई थी। ऐसे में राज्य के राजनीतिक हालातों के बारे में फीडबैक लेने के लिए विधायकों को बुलाया गया था। साथ ही पार्टी के आर्गनाइजेशनल स्ट्रक्चर और पंचायत चुनाव के संबंध में भी उनसे सुझाव लिए गए हैं। दूसरी ओर इन्हीं विधायकों में से कुछ का कहना है कि पार्टी को मजबूती देने के लिए प्रदेश कांग्रेस कमेटी लेवल पर नेतृत्व परिवर्तन की जरूरत है। यह स्पष्ट कहा गया है कि पार्टी को एक ऐसे मजबूत नेता की जरूरत है जो प्रदेश में राजनीतिक समीकरणों को पार्टी हित में मोड़ सके। इसके लिए सभी ने भूपिंदर सिंह हुड्डा को अहम भूमिका सौंपने का सुझाव दिया है।

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दरअसल हरियाणा कांग्रेस में उठा यह सियासी भूचाल फिलहाल भले ही हल्का नजर आ रहा हो, लेकिन आने वाले दिनों में इसकी वजह से कांग्रेस नेतृत्व को बड़े फैसले लेने पड़ सकते हैं। बताया जा रहा है कि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा ने ही यह मुहिम छेड़ी है। वह जानते हैं कि कांग्रेस नेतृत्व उसी के सामने झुकता है, जिसके पास पॉवर होती है और इस मामले में हुड्डा पुराने खिलाड़ी हैं। वह चाहते हैं कि हरियाणा की राजनीति में कांग्रेस में बचीं एकमात्र बड़ी नेता कुमारी शैलजा भी सूबे की सियासत से दूर हो जाएं।

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बता दें कि बीते पचास वर्षों में यदि स्वर्गीय नरसिम्हा राव के कार्यकाल को छोड़ दें तो कांग्रेस का नेतृत्व स्वर्गीय इंदिरा गांधी या उनके परिवार के पास ही रहा है और इस परिवार ने सिर्फ अपनी चलाई है। लोगों को उनके सामने झुकना पड़ता रहा। कांग्रेस पर काबिज इस परिवार के लोग कभी नहीं झुके चाहे इंदिरा गांधी रही हों या फिर सोनिया गांधी। राहुल गांधी भी उसी स्वभाव के हैं। जिस भी कांग्रसी नेता ने सिर उठाने का प्रयास किया, या तो उसको पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, या फिर उसे पार्टी में ही साइडलाइन कर दिया गया।
हालांकि सोनिया गांधी को झुकाने की ताकत इस समय हरियाणा में केवल भूपिंदर सिंह हुड्डा के पास है। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले उन्होंने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर को हिट विकेट करा दिया था। जबकि तंवर को सोनिया गांधी का आशीर्वाद हासिल था, लेकिन सोनिया को वही करना पड़ा जो हुड्डा ने चाहा। यहां तक कि दिल्ली में हुड्डा समर्थकों ने तंवर की पिटाई की। वह घायल होकर अस्पताल में इलाज कराने पहुंचे, लेकिन एक भी हुड्डा समर्थक के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। दूसरी तरफ हुड्डा समर्थक विधायक कांग्रेस आलाकमान पर यह दबाव बनाने में कामयाब रहे कि जिस तरह पंजाब में कैप्टन अमरिंदर फ्री हैंड दिया गया है, वैसे ही हुड्डा को भी दिया जाए।
तब भी सोनिया गांधी को यह मानना पड़ा, लेकिन थोड़े से संशोधन के साथ किरण चौधरी को हटाकर हुड्डा को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया और कुमारी सैलजा को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष। लेकिन टिकट बंटवारे में सबसे ज्यादा हुड्डा की ही चली थी। परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस के 31 विधायकों में हुड्डा सहित उनके बीस से अधिक समर्थक विधायक चुनकर आए। इनमें तीन विधायक ऐसे हैं जो अपने-अपने गुट के इकलौते विधायक हैं। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के बेटे कुलदीप, चौधरी बंसीलाल की पुत्र वधू किरण चौधरी और कैप्टन अजय यादव के पुत्र राव चिरंजीव शामिल हैं। बाकी सात-आठ विधायक सैलजा गुट में से हैं।
लेकिन मुश्किल यह है कि सैलजा स्वयं विधायक नहीं हैं। इसलिए अब अपने समर्थक विधायकों के बल पर हुड्डा कांग्रेस नेतृत्व पर यह दबाव बना रहें कि कुमारी सैलजा को अध्यक्ष पद से हटाकर उन्हें या उनके ही गुट से किसी को अध्यक्ष बनाया जाए। इसी के लिए हुड्डा समर्थक 19 विधायक कांग्रेस के हरियाणा प्रभारी विवेक बंसल से मिल चुके हैं। बताया जा रहा है कि हुड्डा ने कुछ ऐसी ही फील्डिंग चुनाव के पहले भी सजाई थी और मनवांछित परिणाम हासिल करने में सफल रहे थे।
बता दें कि भूपिंदर सिंह हुड्डा सन 2005 तक इतने हरियाणा की पॉलिटिक्स में इतने पॉवरफुल नहीं थे। वह सन 2005 में जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तो उसका कारण उनका पॉवरफुल होना नहीं, बल्कि सोनिया गांधी का भजनलाल को पसंद नहीं करना था। यह बात अलग थी कि वह विधानसभा चुनाव भजनलाल के नेतृत्व में ही लड़ा गया था। तब हरियाणा की जनता ने भजनलाल के चेहरे पर ही कांग्रेस को 65 सीटें दी थी। लेकिन सोनिया गांधी उनसे इसलिए क्षुब्ध थीं, क्योंकि वे कभी नरसिम्हा राव के करीबी हुआ करते थे। वैसे तब सोनिया की पहली पसंद हुड्डा नहीं, बल्कि चौधरी बीरेंद्र सिंह थे, जिन्होंने नरसिम्हा राव के विरोध में नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह के साथ मिलकर तिवारी कांग्रेस बनाई थी। लेकिन हुड्डा ने अहमद पटेल की पैरवी के दम पर सोनिया गांधी का आशीर्वाद हासिल कर लिया था।
उस समय भूपिंदर सिंह हुड्डा को मुख्यमंत्री पद तक पहुंचाने में हरियाणा के दो प्रमुख नेताओं ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनमें से एक विनोद शर्मा थे, जो राजीव गांधी के निकट रहे थे और उनके मंत्रिमंडल में केंद्र में मंत्री रह चुके थे। दूसरी थीं कुमारी सैलजा थीं जो खुद सोनिया गांधी के निकट थीं। हुड्डा मुख्यमंत्री बने और उसके बाद उन्होंने पॉवर पालिटिक्स में पीएचडी हासिल कर ली। उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व को झुकाना भी सीख लिया था। इसलिए कांग्रेस को ताकतवर बनाने के बजाय उन्होंने खुद को पॉवरफुल बनाने पर जोर दिया। वह जानते थे कि यदि भजनलाल समर्थक विधायक कांग्रेस से अधिक भजनलाल के प्रति निष्ठावान होते तो सत्ता का भजन भजनलाल ही करते और भूपेंद्र को अधिक से अधिक मंत्री पद पर बैठकर कीर्तन करने का ही मौका मिल जाता।
लेकिन हुड्डा हरियाणा के ‘भूप’ बने रहना चाहते थे। यही कारण रहा कि विधानसभा में दूसरी बार पहुंचने वाले कांग्रेस के 40 विधायकों में से कांग्रेस के एक-दो ही थे, उनमें से ज्यादातर हुड्डा समर्थक ही थे। हुड्डा ने तब जोड़तोड़ कर सरकार बना ली। लेकिन इस बीच पहले सैलजा और फिर विनोद शर्मा हुड्डा से दूर होते चले गये। दरअसल हुआ यह था कि सैलजा और शर्मा में अंबाला में बनने वाली इंडस्ट्रियल माडल टाउनशिप (आइएमटी) को लेकर टकराव हो गया था। सतीश शर्मा अंबाला से विधायक थे। उन्हीं की सिफारिश पर वहां आइएमटी बन रही थी। लेकिन सैलजा उसके विरोध में थीं। ऐसे में हुड्डा ने अपने मित्र शर्मा का साथ दिया। इससे सैलजा खफा हो गईं और उन्होंने हुड्डा से दूरी बना ली।
आगे चलकर विनोद शर्मा भी हुड्डा से अलग हो गए, लेकिन सैलजा की हुड्डा से दूरी यथावत बनी रही। हुड्डा जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तब पहले शासनकाल में रणदीप सुरजेवाला, चौधरी बीरेंद्र सिंह, कैप्टन अभय यादव जैसे ताकतवर मंत्री हुआ करते थे, जो हुड्डा के लिए सिरदर्द बने रहते थे। दूसरे कार्यकाल में सुरजेवाला और चौधरी बीरेंद्र सिंह चुनाव हार गए। चर्चा है कि जाट बेल्ट में दोनों दिग्गज जाट नेताओं की हार के पीछे भी हुड्डा का ही आंतरिक खेल था। दूसरे कार्यकाल में हुड्डा खुद के बलपर मुख्यमंत्री बने थे इसलिए उन्होंने भी खुलकर बैटिंग शुरू कर दी। सोनिया गांधी ने उनके समानांतर शक्ति केंद्र के रूप में चौधऱी वीरेंद्र सिंह को राज्यसभा में पहुंचाकर उन्हें राष्ट्रीय महासचिव बना दिया। लेकिन हुड्डा इससे विचलित नहीं हुए। हुड्डा एसोसिएट जर्नल लिमिटेड को पंचकूला में पनः प्लाट का आवंटन कर और मानेसर में प्रियंका गांधी के पति राबर्ट वाड्रा का भूमि सौदों में सहयोग करके गांधी परिवार को अपने विरोध में न जाने के लिए विवश कर चुके थे।
2014 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह से हार गई। लेकिन उसके जो पंद्रह विधायक जीते, उनमें से तीन-चार को छोड़ बाकी सब हुड्डा के समर्थक ही थे। सोनिया गांधी ने एक बार फिर हुड्डा को उनकी औकात दिखाने की कोशिश की, और किरण चौधरी को कांग्रेस विधायक दल की नेता बना दिया। लेकिन बाद में यह पद भी शक्ति प्रदर्शन करके हुड्डा ने अपने लिये हथिया लिया और नेता प्रतिपक्ष बन गए। फिलहाल भूपेंद्र सिंह हुड्डा सदन में नेता प्रतिपक्ष हैं लेकिन उनकी अपनी पार्टी में उनका कोई विरोधी नहीं है। कांग्रेस विधायक दल में हुड्डा विरोधियों की बात की जाऐ तो नाम मात्र के रह गए हैं। ऐसे में भूपेंद्र सिंह हु्ड्डा ने अब प्रदेश कांग्रेस का ‘भूप’ बनने के लिए हथकंडे अपनाना शुरू कर दिया है। आने वाले दिनों में कांग्रेस आलाकमान को भी हुड्डा के समर्थन में कोई फैसला लेने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है।