बीजेपी में विचारधारा नहीं अब सत्ता ही एकमात्र लक्ष्य… बीजेपी में बढ़ेगा कांग्रेस की तरह घमासान!

-दूसरे दलों से आये नेताओं को मिल रही कमान, पार्टी कार्यकर्ताओं का लगातार घट रहा महत्व
-हिमंता बिस्वा सरमा को मिली असम की कमान, नहीं तो दोहरायी जाती महाराष्ट्र की कहानी
-हिमंता कांग्रेस से आये तीसरे भाजपाई मुख्यमंत्री, बंगाल और पुड्डुचेरी में भी बाहरी को कमान
हीरेन्द्र सिंह राठौड़

भारतीय जनता पार्टी (BJP) में अब विचारधारा कोई महत्व नहीं रखती। सत्ता पाना पार्टी का अब एकमात्र लक्ष्य रह गया है। यही कारण है कि असम में कांग्रेस से बीजेपी में आए हिमंता बिस्वा सरमा (Himanta Biswa Sarma) को मुख्यमंत्री (CM) की कमान मिली है। केवल यही नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल (West Bengal) और पुड्डुचेरी (Pudducherry) में भी दूसरे दलों से आए नेताओं को ही नंबर-वन (1 नंबर) की कमान सोंपी गई है। इससे पहले भी दो राज्यों के मुख्यमंत्री पद की कमान कांग्रेस से आए नेताओं को सोंपी जा चुकी है। इस तरह से हिमंता कांग्रेस से बीजेपी में आकर मुख्यमंत्री बनने वाले ऐसे तीसरे नेता हैं। इससे साबित होता है कि अब बीजेपी नेतृत्व की नजर में पुराने और वरिष्ठ नेताओं का कोई महत्व नहीं रह गया है।
बता दें कि बीजेपी ने पुड्डुचेरी का मुख्यमंत्री एन रंगासामी को बनाया है, जो कि कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आए हैं। जबकि पश्चिम बंगाल में बीजेपी की ओर से नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी तृणमूल कांग्रेस छोड़कर आए सुवेंदु अधिकारी को सोंपी गई है। उन्होंने बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को विधानसभा चुनाव में हराकर नंदीग्राम की सीट जीती है। बताया जा रहा है कि यदि बीजेपी हिमंता बिस्वा सरमा का असम का मुख्यमंत्री नहीं बनाती तो राज्य में महाराष्ट्र जैसे हालात पैदा हो सकते थे, ऐसे में पार्टी के वरिष्ठ नेता अमित शाह और राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को सोनोवाल के बजाय सरमा को गद्दी देने के लिए झुकना पड़ा।
इससे पहले पुड्डुचेरी में कांग्रेस से बीजेपी में आए पेमा खांडू और मणिपुर में कांग्रेस से बीजेपी में आने वाले एन वीरेन सिंह को मुख्यमंत्री की कुर्सी सोंपी जा चुकी है। पेमा खांडू के पिता दोरजी खांडू अरुणाचल में कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री थे और उनकी हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। उसके बाद उन्हें पेमा खांडू के पिता दोरजी खांडू अरुणाचल में कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री थे और उनकी हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। उसके बाद उन्हें राज्य की तत्कालीन कांग्रेस सरकार में मंत्री बनाया गया। 17 जुलाई 2016 को पेमा खांडू अरुणाचल की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन 16 सितंबर 2016 को कांग्रेस के 43 विधायकों के साथ मुख्यमंत्री पेमा खांडू पूरी सरकार के साथ भाजपा के सहयोगी दल पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल में शामिल हो गए। इसी दौरान 21 दिसंबर 2016 को पेमा खांडू को छह विधायकों के साथ पार्टी से निलंबित कर दिया गया और पीपुल्स पार्टी ने तकाम पारियो को मुख्यमंत्री पद के लिए नामित कर दिया। लेकिन दिसंबर 2016 में ही खांडू ने विधानसभा में अपना बहुमत साबित कर दिया और वह पूरी सरकार के साथ भाजपा में शामिल हो गए। इसलिए यह कहना भी उचित होगा कि पेमा खांडू ने अरूणाचल प्रदेश में अपने नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनवाई।
इसी तरह एन. बीरेन सिंह कांग्रेस छोड़कर 17 अक्टूबर 2016 को भाजपा में शामिल हुए और 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने उन्हें आगे रख कर चुनाव लड़ा, लेकिन भाजपा कांग्रेस से पिछड़ गई औऱ त्रिशंकु विधानसभा में कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई। लेकिन राज्यपाल ने कांग्रेस को न बुलाकर भाजपा गठबंधन को सरकार बनाने का मौका दिया और एन. बीरेन सिंह ने जोड़-तोड़ से अपना बहुमत साबित कर लिया। उनकी ताजपोशी भी सामान्य परस्थितियों में नहीं हुई थी। लेकिन मणिपुर में भाजपा के लिए अपने बूते सरकार बनाना मुमकिन नहीं था और उसे जोड़तोड़ के लिए बीरेन को आगे करना पड़ा था।
असम में 2016 के चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं कहा था कि चुनावों के बाद असम में सर्वानंद सोनोवाल के नेतृत्व में सर्वत्र आनंद और स्वर्णमय असम होगा। उन्हें पीछे करके उन हिमंत बिस्वा सरमा को, जिनका कभी भाजपा मंत्री पद से इस्तीफा मांगती थी, को राज्य की कमान सौंपी है। अब इसे कोविड संक्रमण की दूसरी लहर से मची अफरातफरी, बंगाल और उत्तर प्रदेश पंचायत चुनावों के नतीजों से पैदा हुए राजनीतिक हालात की मजबूरी में किसी क्षत्रप के दबाव के आगे झुकने का भाजपा का आपद धर्म ही माना जाएगा। माना जा रहा है कि भविष्य में अब भाजपा नेतृत्व अन्य राज्यों में भी दूसरे दलों से आने वाले बड़े नेताओं के प्रति भी ऐसी नरमी दिखा सकता है। कारण जो भी हो लेकिन इस फैसले से देश के अन्य राज्यों में जहां भी भाजपा सरकार में या प्रमुख विपक्ष है, संगठन औऱ सरकार में सत्ता के दावेदारों की संख्या भी बढ़ेगी और उनके बीच महाभारत भी बढ़ सकता है। साथ ही क्षत्रपों को यह संदेश भी गया है कि भले ही अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी क्षत्रपों के दबाव के सामने नहीं झुकती रही हो, लेकिन अब उनसे अपनी बात मनवाई जा सकती है।
असम में हिमंत बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बनाकर भारतीय जनता पार्टी ने पूर्वोत्तर के इस सबसे बड़े राज्य में अपनी सरकार के दूसरे कार्यकाल की स्थिरता तो सुनिश्चित कर ली है लेकिन इससे यह संकेत भी गया है कि बीजेपी अब किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री और केंद्र में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री जैसे अहम पदों पर संघ और भाजपा की मौलिक पृष्ठभूमि से आए नेताओं के बजाय दूसरे दलों से आने वाले नेताओं को भी बिठा सकती है। उधर कांग्रेस के पास सिर पीटने के सिवा कोई चारा नहीं है क्योंकि अगर वक्त रहते पार्टी नेतृत्व ने हिमंत की उपयोगिता समझी होती तो शायद 2016 में भी कांग्रेस असम में सत्ता से बाहर नहीं होती। अगर हो भी जाती तो इस बार निश्चित रूप से हिमंत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनती। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व का अहंकार और जड़ता किस कदर पार्टी पर भारी पड़ती है उसका सबसे बड़ा उदाहरण असम में हिमंत बिस्वा सरमा की भाजपा के मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी है।
अब सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि हिमंत की ताजपोशी क्या भाजपा में फिर से क्षत्रप युग की वापसी है। क्योंकि अटल-आडवाणी युग में भाजपा ने कमोबेश अपने प्रभाव वाले हर राज्य में संगठन और सरकार का नेतृत्व क्षत्रपों को सौंपने की परंपरा रखी थी। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, गुजरात में केशूभाई पटेल, नरेंद्र मोदी, मध्य प्रदेश में सुंदरलाल पटवा, उमा भारती शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह, उत्तराखंड में भगत सिंह कोश्यारी, भुवनचंद्र खंडूरी, रमेश पोखरियाल निशंक, झारखंड में बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, कर्नाटक में बीएस येदुयेरप्पा, राजस्थान में भैरोंसिह शेखावत, वसुधरा राजे, हिमाचल प्रदेश में शांताकुमार, प्रेम सिंह धूमल और दिल्ली में मदनलाल खुराना साहिब सिंह वर्मा इसके उदाहरण रहे हैं।
साल 2014 में मोदी-शाह युग शुरू होते ही जिस भी राज्य में भाजपा चुनाव जीती वहां स्थानीय क्षत्रपों को दरकिनार करके उन्हें कमान देना शुरू किया गया, जो केंद्रीय नेतृत्व पर पूरी तरह से आश्रित थे। हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर, झारखंड में रघुबरदास, गुजरात में विजय रूपाणी, महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस और असम में सर्वानंद सोनोवाल के नाम लिए जा सकते हैं। अब यही हाल पश्चिम बंगाल में शुरू हो गया है। कहा जा रहा है कि हिमंत ने अपनी दावेदारी मजबूत करने के लिए भाजपा के तीनों सहयोगी दलों की तरफ से नेतृत्व को यह संदेश दिलवाया था कि अगर हिमंत के दावे की अनदेखी की गई तो दूसरे विकल्प भी खुले हैं। उधर कांग्रेस के नेता लगातार घटक दलों को साथ आकर वैकल्पिक सरकार बनाने का संदेश दे रहे थे। भाजपा नेताओं ने इस संवेदनशीलता को महसूस किया और बिना देर किए सर्वानंद सोनोवाल को भी तैयार कर लिया कि वह हिमंत के लिए अपना दावा छोड़ दें और स्वभाव से शांत सर्वानंद ने तत्काल उसे शिरोधार्य भी किया।
हिमंत को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा नेतृत्व ने कई निशाने साधे हैं। पहला तो यह कि असम में अब अगले पांच सालों तक राज्य सरकार को किसी तरह की कोई चुनौती भीतर और बाहर से मिलने की संभावना लगभग खत्म हो गई है। दूसरा ये कि हिमंत का प्रभाव भाजपा असम के बाहर मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, मिजोरम समेत पूरे पूर्वोत्तर में इस्तेमाल करते हुए आसानी से अपना प्रभाव विस्तार कर सकेगी। मुख्यमंत्री बनने के बाद हिमंत पूर्वोत्तर में एक बड़े क्षत्रप बनकर उभरेंगे। हालांकि सिक्किम और नगालैंड की परिस्थिति असम एवं अन्य राज्यों से भिन्न है। तीसरा यह कि हिमंत को बनाकर भाजपा ने कांग्रेस और अन्य दलों के उन नेताओं जिनके भीतर राजनीतिक संभावना है, लेकिन उनकी पार्टियों का नेतृत्व उन्हें आगे नहीं बढ़ा रहा है, को यह संदेश भी दे दिया है कि अगर किसी में योग्यता और उपयोगिता है तो बिना राजनीतिक और वैचारिक पूर्वाग्रह के उसे भाजपा शीर्ष पद की जिम्मेदारी भी सौंप सकती है। भविष्य में गैर-भाजपा दलों के भीतर तोड़-फोड़ में भाजपा के सियासी प्रबंधक असम के उदाहरण का इस्तेमाल कर सकते हैं।
इससे पहले आमतौर पर भाजपा ने अभी तक किसी दूसरे दल से आए किसी नेता को अपनी सरकार और संगठन में सबसे ब़ड़ा पद नहीं दिया है। क्योंकि केंद्र और प्रदेशों में सरकार और संगठन के सर्वोच्च पदों के लिए नेता का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की मूल विचारधारा में दीक्षित और शिक्षित होना अनिवार्य शर्त रही है। यही वजह थी कि राजमाता विजयाराजे सिंधिया और सुषमा स्वराज जैसी प्रखर और लोकप्रिय नेताओं को कभी भी भाजपा ने अध्यक्ष बनाने के बारे में नहीं सोचा। जबकि संघ और भाजपा पर विरोधी लगातार यह आरोप लगाते रहे हैं कि दोनों ही संगठनों की कमान आज तक किसी महिला को नहीं सौंपी गई। क्योंकि इनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि दूसरे दलों की रही है। यहां मेनका गांधी का नाम इसलिए नहीं जोडा जा रहा है कि वह उसी गांधी-नेहरू परिवार की बहू हैं जिसके खिलाफ संघ और भाजपा की पूरी वैचारिक लाइन चलती है और उन संजय गांधी की पत्नी हैं, जिन पर आपातकाल की ज्यादतियों का आरोप हमेशा भाजपा समेत पूरा विपक्ष लगाता रहा है। इसलिए उन्हें सांसद और केंद्रीय मंत्री बन कर ही संतोष करना पड़ा और मौजूदा लोकसभा में सबसे वरिष्ठ सासंद होने के बावजूद उन्हें लोकसभा अध्यक्ष तक नहीं बनाया गया।
कुछ इसी तरह का हाल भाजपा के प्रति पूरी तरह समर्पित होने के बावजूद मुख्तार अब्बास नकवी और शाहनवाज हुसैन जैसे नेताओं का भी रहा है, जो पार्टी का अल्पसंख्यक चेहरा तो रहे हैं, लेकिन उन्हें महासचिव पद की जिम्मेदारी कभी नहीं दी गई। अपवाद स्वरूप भाजपा के शुरुआती दिनों में कुछ समय के लिए वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री सिकंदर बख्त को जरूर महासचिव बनाया गया था, बाद में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष पद दे दिया गया था। इसी तरह नकवी और शाहनवाज को भी सरकारों में मंत्री तो बनाया गया, लेकिन संगठन में उपाध्यक्ष ही बनाए गए। इसी तरह भारतीय जनसंघ के दिनों के नेता आरिफ बेग बीजेपी सरकार में मंत्री तो बने लेकिन वह भी संगठन में उपाध्यक्ष ही रहे।
यही स्थिति राज्यों में भी रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा, कर्नाटक आदि राज्यों में भी अन्य दलों से आए नेताओं को संगठन और सरकार में नंबर-एक यानी सर्वोच्च पद कभी नहीं दिया गया। लेकिन यहां दिल्ली बीजेपी का संगठन इसका अपवाद भी रहा है। क्योंकि समाजवादी पार्टी से आये मनोज तिवारी को बीजेपी ने दिल्ली प्रदेश बीजेपी की कमान सोंपी थी और वह 2020 तक दिल्ली के अध्यक्ष रहे। बता दें कि मनोज तिवारी समाजवादी पार्टी के टिकट पर गोरखपुर सीट से योगी आदित्यनाथ के सामने लोकसभा चुनाव लड़कर हार गये थे। लेकिन जैसे ही बीजेपी में मोदी-शाह युग की शुरूआत हुई तो मनोज तिवारी को दिल्ली बीजेपी की कमान सोंप दी गई थी।
जब असम में हिमंत बिश्वा सरमा को मुख्यमंत्री बनाया गया है तो इसे भाजपा की परंपरागत नीति से हटना इसलिए माना जाएगा क्योंकि यहां पार्टी ने दोबारा चुनाव जीता है और उसके निवर्तमान मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल के खिलाफ कोई भी आरोप या नाराजगी नहीं थी। बल्कि कभी जब हिमंत कांग्रेस में थे और तरुण गोगोई की सरकार में मंत्री थे भाजपा उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर उनके इस्तीफे और जांच की मांग किया करती थी। इसलिए अगर पार्टी नेतृत्व उन्ही हिमंत को मुख्यमंत्री बना रहा है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा का एक वर्ग पूरी तरह से सर्वानंद सोनोवाल के पक्ष में थे।
पार्टी से जुड़े सूत्रों का तो यह भी कहना है कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सर्वानंद के कामकाज, समर्पण और ईमानदारी के कायल हैं। भाजपा के नेता मानते हैं कि हिमंत की जोड़-तोड़ की ताकत और जमीनी पकड़ से भाजपा को मजबूती मिली है, लेकिन पार्टी की सत्ता वापसी में सर्वानंद की साफ-सुथरी छवि का भी कम योगदान नहीं है। भाजपा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी का कहना है कि अगर मुख्यमंत्री की छवि ठीक न हो तो सारी जोड़ तोड़ धरी रह जाती है और जिस तरह से सोनोवाल को किनारे किया गया है इसका संदेश असम की जनता में ठीक नहीं गया है। वहीं दूसरी तरफ पूर्वोत्तर के जानकार भाजपा के एक अन्य नेता का कहना है कि अगर पार्टी हिमंत के दावे को दरकिनार करती तो देर सबेर असम में सरकार कभी भी गिर सकती थी और उसका फायदा कांग्रेस को मिल सकता था क्योंकि भाजपा के सहयोगी दलों पर हिमंत का ही प्रभाव है। इसलिए भाजपा ने असम को दूसरा महाराष्ट्र होने से बचाने के लिए सोनोवाल को पीछे किया है, अब उन्हें केंद्र में लाकर अहम जिम्मेदारी दी जाएगी।
बीजेपी के इस फैसले ने पार्टी की व्यवहारिक राजनीति को फिर उजागर किया है। इसने साबित किया है कि भाजपा का मौजूदा नेतृत्व पुरानी भाजपा की तरह नीति और विचारधारा की सीमाओं से बाहर निकल कर सत्ता की राजनीति की आवश्यकताओं और दबावों के मुताबिक अपने फैसले लेता है। इस फैसले से जहां भाजपा को वे सारे लाभ होंगे जिनसे दूसरे राज्यों में पार्टी की सत्ता का विस्तार हो सकता है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष है कि यह फैसला भविष्य में भाजपा नेतृत्व का सिरदर्द भी बढ़ा सकता है। इससे भाजपा में अन्य दलों से आए क्षत्रप नेताओं की उम्मीदों को भी पर लग गए हैं। मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम ऐसे नेताओं में लिया जा सकता है। हालांकि अभी तो नहीं लेकिन 2023 में वह मुख्यमंत्री पद पर अपनी दावेदारी ठोंक सकते हैं। इसी तरह उत्तराखंड में सतपाल महाराज और हरक सिंह रावत जैसे पाला बदलने वाले नेता भी 2022 के विधानसभा चुनावों में अपने लिए दबाव बढ़ा सकते हैं।
उत्तर प्रदेश में स्वामी प्रसाद मौर्य की छटपटाहट भी 2022 के विधानसभा चुनावों में रंग ला सकती है। तो महाराष्ट्र में नारायण राणे भविष्य में खम नहीं ठोकेंगे इसकी क्या गारंटी है? झारखंड में भाजपा से बाहर गए और फिर लौटे बाबूलाल मरांडी भी अपने भविष्य के बारे में सोच सकते हैं। गोवा में तो भाजपा की सरकार ही कांग्रेस से आए नेताओं के बलबूते चल रही है और मनोहर पर्रिकर की गैर-मौजूदगी में अगले साल चुनावों में इनमें से एक दो दावेदार तो पैदा हो ही जाएंगे। प. बंगाल की बात करें, तो नेता विपक्ष पद के लिए सुवेंदु अधिकारी ने अभी से बाजी मार ली है, उनका दावा इसलिए भी मजबूत रहा क्योंकि उन्होंने कांटे के मुकाबले में ममता बनर्जी को शिकस्त दी। वहीं सुवेंदु का नेता विपक्ष बनना निश्चित रूप से शायद मुकुल राय को अच्छा नहीं लगा होगा, क्योंकि तब भाजपा की ओर से 2026 में सुवेंदु ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बनने के लिए सबसे मजबूत दावेदार होंगे। कुल मिलाकर असम में हिमंत की ताजपोशी फिलहाल भाजपा को इस पूर्वोत्तर के राज्य में राहत दे सकती है लेकिन पार्टी के इस फैसले से कई राज्यों में संगठन में गुटबाजी, अंदरूनी घमासान और सिर फुटौव्वल का रास्ता जरूर खुल गया है।