-बागी बिगाड़ेंगे बसपा का खेल, पार्टी में बगावत बना मायावती की परेशानी का सबब
-बड़े चेहरों का छिटकना 2022 के चुनाव में पड़ सकता है मायावती को भारी
हीरेन्द्र सिंह राठौड़/ नई दिल्ली
उत्तर प्रदेश की सियासत में लगातार तूफान उठ रहे हैं। अलग अलग सियासी दलो ंके कई बड़े चेहरे अपने लिए ठिकाने की तलाश में जुट गए हैं। कांग्रेस के बड़े चेहरे माने जाने वाले जितिन प्रसाद ने पिछले दिनों बीजेपी ज्वॉइन कर ली। केवल यही नहीं बल्कि अल्पसंख्यक वोट का लेकर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) बीच तलवारें खिंच गई हैं। बसपा से निष्कासित विधायकों ने जब सपा के मुखिया अखिलेष से मुलाकात की तो बसपा प्रमुख मायावती की त्योरियां चढ़ गईं। उन्होंने सपा में तोड़-फोड़ होने की भविष्यवाणी कर डाली। कांग्रेस और बसपा-सपा के बीच चल रहे अंतर्द्वंद के बीच सबसे ज्यादा नुकसान बहुजन समाज पार्टी को हो रहा है। जिस तरह बिहार में चिराग पासवान के चुनाव जीते सभी नेता उनका साथ छोड़कर चले गए हैं, उसी तरह बसपा के जीते हुए ज्यादातर नेताओं ने मायावती से दूरी बना ली है।
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बसपा के 14 अप्रैल 1984 को गठन से लेकर अब तक 37 वर्षों में बसपा में टूट-फूट होती रही है। लेकिन इस पार्टी में इस बार की बगावत मिशन-2022 में परेशानी का सबब बन सकती है। सबसे बड़ी चिंता की बात है कि बसपा के कैडर के नेता एक-एक कर अलग हाते जा रहे हैं। एक समय भारी-भरकम नेताओं से भरी यह टीम आज खाली होती दिख रही है। आज बसपा के पास मायावती के बाद दूसरी श्रेणी के नेताओं का टोटा है। यहां तक कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो बसपा खत्म जैसी हो गई है।
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2017 में बसपा के 19 विधायक जीतकर आये थे, लेकिन पार्टी ने बाद में हुए उपचुनाव में एक सीट गंवा दी थी। इसके पश्चात पार्टी ने अपने दो विधायकों को निष्कासित कर दिया है। इस तरह से बसपा की विधानसभा में आधिकारिक संख्या अब 16 ही रह गई है। लेकिन व्यावहारिक रूप से देखें तो पार्टी के पास केवल सात विधायक ही रह गए हैं। यह संख्या वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में जीते अपना दल (सोनेलाल) की 9 सीटों से दो कम और लंबे अर्से से यूपी की सियासत में अपने लिए संजीवनी की तलाश में भटक रही कांग्रेस की सात सीटों के बराबर है। हालांकि कांग्रेस के भी दो विधायक बागी रवैया दिखा चुके हैं।
बड़ा संकेत है अल्पसंख्यकों का दूरी बनाना
साल 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 19 सीटें जीती थीं। उसकी सूची में 18 विधायकों के नाम हैं। इन विधायकों में अल्पसंख्यक वर्ग से असलम अली, मुख्तार अंसारी, मो. मुजतबा सिद्दीकी, मो. असीम रायनी और शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली कुल पांच विधायक थे। लेकिन ताजा घटनाक्रम में अल्पसंख्य वर्ग के तीन विधायकों असलम राइनी, असलम अली व मुजतबा सिद्दीकी ने समाजवादी पार्टी का रूख कर लिया है। ऐसे में 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए यह स्पष्ट संकेत है कि अल्पसंख्यक वोट बैंक बसपा से छिटक रहा है। आगामी यूपी विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा के बीच अल्पसंख्यकों को अपने पाले में लाने को लेकर होड़ मचना लाज़िमी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन करने वाली सपा-बसपा में नतीजे आने के बाद अंदरखाने परस्पर सवाल उठते रहे हैं कि मुस्लिम मतदाता किसके साथ गया? जाहिर है कि इसका असर आने वाले विधानसभा चुनावों के नतीजों पर जरूर पड़ेगा।
लगातार दूर हो रहे बड़े चेहरे
एक समय ऐसा था कि बसपा में हर जाति के बड़े चेहरे थे। सोनेलाल पटेल, आरके चौधरी, इंद्रजीत सरोज, स्वामी प्रसाद, मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, धर्मसिंह सैनी। यह वे नाम हैं जिन्हें बसपा के नाम से पहचाना जाता था। समय और परिस्थितियां बदलती चली गईं, इसी के साथ बड़े चेहरे भी दूसरे दलों में चले गये। पूर्वी उत्तर प्रदेश की सियासत के बड़े कुर्मी नेता लालजी वर्मा और राजभरों के बड़े नेता रामअचल राजभर भी आजकल बसपा से निष्कासित चल रहे हैं।
दूसरे नेता भी तलाश रहे ठिकाना
बसपा से जुड़े सूत्र बताते हैं कि पार्टी के कुछ और नेता भी विधानसभा चुनाव से ठीक पहले दूसरे दलों का दामन थाम सकते हैं। इसमें एक महिला व पुरुष विधायक भाजपा के संपर्क में बताए जा रहे हैं। कई राज्यों के प्रभारी रह चुके एक पिछड़ी जाति के नेता भी इन दिनों उपेक्षित चल रहे हैं। वह भी नए ठिकाने की तलाश में बताए जाते हैं।
मायावती की मनमानी से बिखर रही पार्टी!
बसपा का गठन कांशीराम ने किया था। उनका लक्ष्य दबे, कुचले, दलितों, शोषितों को न्याय दिलाना था। कांशीराम ने इसको ध्यान में रखते हुए दलितों-पिछड़ों का एक ऐसा गठजोड़ तैयार किया जो यूपी की राजनीति में सिर चढ़ कर बोलने लगा। मायावती इसी के दम पर चार बार यूपी की सत्ता के शिखर तक पहुंचीं। कांशीराम के बाद पार्टी की कमान मायावती के पास आई। पार्टी की सुप्रीमो बनने के बाद मायावती ने अपने हिसाब से ताना-बाना बुनना शुरू किया। पार्टी में जिम्मेदारियां नए सिरे से तय की जाने लगीं। इसका असर कांशीराम के साथ आए कॉडर के नेताओं पर पड़ने लगा और धीरे-धीरे पनपा असंतोष नेताओं की राह को अलग करने लगा। सूत्रों का कहना है कि पार्टी में बिखराव का एक कारण पार्टी नेतृत्व द्वारा बड़े स्तर पर उगाही करना भी रहा है।
बसपा से निलंबित विधायक
असलम राइनी (भिनगा-श्रावस्ती)
असलम अली चौधरी (ढोलाना-हापुड़)
मुजतबा सिद्दीकी (प्रतापपुर-प्रयागराज)
हाकिम लाल बिंद (हांडिया-प्रयागराज)
हरगोविंद भार्गव (सिधौली-सीतापुर)
सुषमा पटेल (मुंगरा बादशाहपुर-जौनपुर)
वंदना सिंह (सगड़ी-आजमगढ़)
रामवीर उपाध्याय (सादाबाद-हाथरस)
अनिल सिंह (पुरवा-उन्नाव)।
बसपा से बर्खास्त विधायक
लालजी वर्मा (कटहरी-अम्बेडकरनगर)
रामअचल राजभर(अकबरपुर-अम्बेडकरनगर)।
अभी ये सात विधायक ही बसपा के साथ
पूर्वांचल से :
आजाद अरिमर्दन- आजमगढ़
उमाशंकर सिंह – बलिया
मुख्तार अंसारी- मऊ
विनय शंकर तिवारी- गोरखपुर
शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली- आजमगढ़
सुखदेव राजभर- आजमगढ़
पश्चिम यूपी से :
श्याम सुंदर शर्मा- मथुरा