विजय गुप्ता बंटी: जो शख्स सारे शहर को वीरान कर गया…

हजारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है…
बड़ी मुश्किल से होते हैं चमन में दीदा-वर पैदा…।।
जी हां, विजय गुप्ता बंटी कुछ इसी तरह की शख्सियत थे। मैंने कॉलेज छोड़ने के बाद उनके साथ अपनी जिंदगी का करीब डेढ़ दशक गुजारा है। लेकिन बुधवार 14 अप्रैल 2021 की सुबह मां ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना करके उठा था। कुछ ही समय गुजरा था कि एक मित्र का फोन आया कि विजय गुप्ता जी अब नहीं रहे हैं। मन एकदम भाव शून्य हो गया। हाथ में मोबाइल था तो अपने आप कुछ व्हाट्सएप ग्रुप खुलते चले गये, कई व्हाट्सएप ग्रुप्स पर उनके बारे में मैसेज पड़े हुए थे। मैं इन ग्रुप्स में भी ज्यादा कुछ नहीं लिख सका। लेकिन उनके साथ गुजारा हुआ एक-एक पल मेरी आंखों के सामने से किसी बॉलीवुड-मूवी की तरह गुजरता चला गया।
बात 1991 की है, मैं अलीगढ़ से अपनी ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करके दिल्ली आया था। मुझे नहीं मालूम था कि मैं दिल्ली आकर किस फील्ड में जाऊंगा? कुछ समय बाद विजय गुप्ता बंटी जी से परिचय हुआ था। वह किराना कमेटी दिल्ली के प्रधान चुने गये थे। मैं तब से लेकर अब तक उनके साथ जुड़ा रहा। हालांकि सक्रिय रूप से उनके साथ साल 2006 तक ही जुड़ा रह सका। क्योंकि बाद में मेरी सक्रिय पत्रकारिता की वजह से उनके साथ जल्दी-जल्दी मुलाकात नहीं हो पाती थी। हालांकि सामान्य तौर पर एक-डेढ़ महीने में फोन पर बात जरूर हो जाती थी।
मुझे याद है 1992 में वह किराना कमेटी के प्रधान चुने गये थे, तब दिल्ली के व्यापारियों के बीच बिक्री-कर बड़ी समस्या हुआ करता था। दिल्ली थोक-वितरण स्वरूप था और आज भी है, लेकिन तब बिक्री-कर की दरें ज्यादा होने की वजह से यहां का व्यापार उत्तर प्रदेश और हरियाणा की ओर शिफ्ट होने लगा था। इसके अलावा दिल्ली में आयकर भी व्यापारियों के लिए बड़ा सिरदर्द हुआ करता था। आये दिन होने वाली छापेमारी की वजह से रोजाना कोई न कोई थोक बाजार विरोध में कहें या फिर छापेमारी के भय की वजह से, लेकिन बंद रहता था।
उस समय पुरानी दिल्ली के थोक बाजार ही नहीं बल्कि दिल्ली के अन्य उभरते बाजारों को भी एक व्यापारी नेता की तलाश थी। क्योंकि अफसरों से आंखों में आंखें डालकर बात करने वाला कोई व्यापारी नेता उस समय नहीं था, जो दिल्ली के व्यापारियों की समस्याओं को उठा सके। विजय गुप्ता बंटी के अंदर ऐसा कुछ था जो दूसरे लोगों में नहीं था। एक अलग तरह का जोश, एक अलग तरह की सोच, जुझारूपन, ईमानदारी और बिना किसी हिचक के अपनी बात कह देने का हौसला उनमें था। यही कारण था कि पुरानी दिल्ली के थोक बाजार ही नहीं बल्कि दिल्ली के अन्य बाजारों के व्यापानी नेताओं ने भी उन्हें अपना नेता माना। इसी दौरान उन्होंने स्वर्गीय राजेंद्र गुप्ता, राधेश्याम शर्मा, स्वर्गीय जगदीश राय शर्मा, अजय अरोड़ा, सुशील गोयल व कुछ अन्य तत्कालीन वरिष्ठ व्यापारी नेताओं के साथ मिलकर एक नये व्यापारिक संगठन ‘फोरम ऑफ दिल्ली ट्रेड एसोसिएशंस’ का गठन किया।
उसी दौरान 1993 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए और स्वर्गीय श्री मदन लाल खुराना दिल्ली के मुख्यमंत्री बने। यूं तो विजय गुप्ता बंटी आजीवन भाजपाई रहे, लेकिन व्यापारियों के लिए वह दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री से भी जाटकराये। दिल्ली में बीजेपी की पहली बार सरकार बनी थी। दूसरा कोई व्यापारिक संगठन सरकार से पंगा लेने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। ऐसे में कई बार के आश्वासनों के बाद भी जब दिल्ली के व्यापारियों को बिक्री कर से राहत नहीं मिली तो उन्होंने किराना व्यापारियों की हड़ताल का ऐलान कर दिया।
किराना व्यापारियों की हड़ताल कई दिन तक चली, विधानसभा पर प्रदर्शन हुआ, वाटर कैनन का प्रयोग हुआ, कई व्यापारी घायल भी हुए, व्यापारियों को सिविल लाइंस थाने ले जाया गया। इसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना और वित्त मंत्री जगदीश मुखी के साथ वार्ता और बजट में बड़ी राहत के आश्वासन के बाद हड़ताल खत्म हुई। इसके साथ ही तत्कालीन बीजेपी सरकार ने अगले ही बजट में बिक्री कर की दरें बहुत सी किराना एवं ड्राई फ्रूट्स की वस्तुओं पर आधी कर दीं। केवल यही नहीं तब की बीजेपी सरकार ने पहली बार कई अन्य दूसरी ट्रेड की वस्तुओं पर भी बिक्री कर घटाया।
इसके पश्चात 1995 में तत्कालीन केंद्र सरकार की ओर से ‘दिल्ली किराया कानून’ लाया गया। पुरानी दिल्ली के थोक बाजारों में ही नहीं बल्कि अब तक राजधानी के अन्य बाजारों में भी दुकानें पगड़ी पर देकर मामूली किराया लिया जा रहा था। पुरानी दिल्ली में तो ज्यादातर दुकानों पर दुकानदारों की तीसरी और चौथी पीढ़ी व्यापार कर रही थी। ऐसे में नया किराया कानून लाकर इन दुकानों को खाली कराये जाने का फरमान जारी किया जा रहा था। ऐसे में एक बार फिर विजय गुप्ता बंटी और फोरम ऑफ दिल्ली ट्रेड एसोसिशंस ने आंदोलन शुरू कर दिया। दिल्ली के बहुत से बाजार कई दिन तक बंद रहे। आंदोलन इतना ज्यादा प्रभावशाली रहा कि संसद से कानून पास हो जाने और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाने के बावजूद इसे लागू नहीं किया जा सका। हालांकि बाद में कई वर्षों बाद इसे टुकड़ों-टुकड़ों में लागू किया गया और अब बहुत से मामले अदालतों में पेंडिंग हैं।
इसके पश्चात केंद्र सरकार आयकर विभाग की ओर से एक और योजना लाई थी, इसे ‘सेल्फ डिक्लेयर स्कीम’ का नाम दिया गया था। इस योजना के तहत जो लोग अपनी अघोषित आय, धन या प्रॉपर्टी को घोषित करेंगे उनसे उस धन के स्रोत नहीं पूछे जाने थे। लेकिन आयकर विभाग ने व्यापारियों द्वारा घोषणा करने के बाद उनके खिलाफ जांच और छापेमारी शुरू कर दी थी। ऐसे में एक बार फिर विजय गुप्ता ने दिल्ली के व्यापारियों का नेतृत्व किया और आंदोलन के जरिये इस तरह की छापेमारी और स्क्रूटिनी को बंद कराया था।
1993 से 1998 तक दिल्ली में बीजेपी की सरकार रही और विजय गुप्ता ने सरकार, मुख्यमंत्री और मंत्रियों के साथ अपने संबंधों के जरिये दिल्ली के व्यापारिक समाज को हमेशा राहत पहुंचाई। 1998 में दिल्ली में कांग्रेस की सरकार बनी और शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं। लेकिन विजय गुप्ता ने व्यापारिक हितों की रक्षा के मामले में कभी कांग्रेस सरकार के सामने भी घुटने नहीं टेके। उन्होंने कई बार आंदोलन भी किये और विभिन्न व्यापारिक संगठनों के नेताओं के सहयोग से व्यापारियों को सरकार से विभिन्न मामलों में राहत दिलायी।
साल 2002 में ऐसा समय भी आया जब उन्हें सीधे चुनाव में भी उतरना पड़ा। 2002 में बीजेपी की ओर से उनकी पत्नी श्रीमती कांता गुप्ता को नगर निगम चुनाव में उतारा गया। क्योंकि उस समय मॉडल टाउन सीट महिलाओ ले लिए आरक्षित हो गई थी। इसलिए उन्होंने यह चुनाव पूरी सिद्धत के साथ लड़ा। लेकिन इस चुनाव में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। हालांकि हार-जीत का अंतर बेहद कम रहा। लेकिन उन्होंने इसे सामान्य बात मानते हुए व्यापारियों की लड़ाई को आगे भी जारी रखा।
साल 2004 में दिल्ली में व्यापारियों के लिए ‘वैल्यू एडिड टैक्स’ (वैट) प्रणाली को लागू किया गया। विजय गुप्ता ने वैट के जरिये व्यापार में आने वाली पारदिर्शता का समर्थन किया। हालांकि वैट के कई अव्यवहारिक प्रावधानों को लेकर उन्होंने हमेशा विरोध जताया। इसको लेकर भी कई बार आंदोलन की स्थिति आयी। लेकिन उन्होंने व्यापार और व्यापारियों के लिए अपने समर्पण को हमेशा जारी रखा। आगे चलकर किराना कमेटी की राजनीति में बहुत से बदलाव आये। इसका असर दिल्ली की व्यापारिक राजनीति पर भी पड़ा। उनकी व्यक्तिगत जिंदगी में बड़े-बड़े राजनीतिक एवं आर्थिक उतार-चढ़ाव आये, लेकिन विजय गुप्ता हमेशा अपने पथ पर अडिग रहे।
मैं जब तक उनके साथ सक्रिय रूप से जुड़ा रहा, तब तक ऐसे कई मौके आये, जब वह अपने लिए लाखों रूपये कमा सकते थे। लेकिन उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया। ऐसे मौके तब आये जब हर साल किराना-ड्राई फ्रूट मार्केट में दर्जनों दुकानदार खुद को दिवालिया घोषित कर रहे थे। तब भी उन्होंने हिसाब-किताब में पारदर्शिता बनाये रखी। वह इस तरह की सारी जिम्मेदारी हमेशा अन्य पदाधिकारियों और कार्यकारिणी सदस्यों को दे दिया करते थे। पैसों के लेन-देन का हिसाब-किताब भी उन्हीं लोगों के पास रहा करता था। हां मुझे इस सबकी जानकारी जरूर रहा करती थी कि किस फर्म का कितना पैसा आया है और कितना बांटा गया है? कई लोगों ने इस मामले में उनकी जानकारी के बगैर हेरा-फेरी भी की लेकिन उन्होंने कभी अपने लिये कुछ नहीं किया।
मैं इस बात का खुद गवाह रहा हूं कि कई बार विजय गुप्ता को अपने साथियों की वजह से आलोचना का सामना करना पड़ा। लेकिन उनके मन में बेईमानी नहीं थी, अतः उन्होंने कभी इसकी परवाह भी नहीं की। उनके इसी ‘विशेष अंदाज’ से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह अपने आप में एक संस्थान थे। उनके पास यदि कोई भी व्यक्ति अपना काम लेकर आता था तो उसके काम को वह अपनी डायरी में नोट किया करते थे और जब तक हो नहीं जाता था तब तक वह उसे दोहराते रहते थे। उनके व्यापारी राजनीति के जीवन में कई ऐसे लोग रहे जो केवल अपने व्यक्तिगत मतलब के लिए जुड़े और जब वह मतलब पूरा नहीं हुआ तो उनका विरोध भी करने लगे। लेकिन उनकी बेबाक शख्सियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ऐसे लोग भी जब उनके पास दोबारा अपने मतलब से आये, तब भी उन्होंने कभी मना नहीं किया।
विजय गुप्ता जीवनभर सेवाभावी रहे। उन्होंने किराना कमेटी में खारी बावली इलाके के कर्मचारियों के लिए मुफ्त डिस्पेंसरी की शुरूआत करायी। हालांकि लोगों के अपेक्षित सहयोग के बिना वह आगे चलकर बंद हो गई। गऊशाला किशनगंज के साथ भी बिना कोई पदाधिकारी बने लंबे समय तक जुड़े रहे। इसके साथ ही उत्तराखंड के राम नगर में हनुमान भक्त आचार्य विजय जी के द्वारा स्थापित हनुमान धाम के साथ भी पूरे तन-मन के साथ जुडे़ रहे।
पिछले दिनों उनके साथ मेरी मुलाकात उन्हीं की लिखी किताब के विमोचन के मौके पर कांस्टीट्यूशन क्लब में 23 जनवरी 2021 को हुई थी। इससे करीब 10-12 दिन पहले उनका फोन आया था। तब उन्होंने बताया था कि किताब का विमोचन है और जरूर आना है। वह बहुत से लोगों के साथ व्यस्त थे तो बस थोड़ी सी बातें ही हो पाई थीं। लेकिन वही मुलाकात मेरी उनके साथ आखिरी मुलाकात बनकर रह गई। हालांकि इसके बाद भी उनके साथ फोन पर कई बार बातें हुईं। लेकिन अब उनकी आवाज हमें कभी सुनाई नहीं देगी…
अब तो उनके बारे में केवल यही कहा जा सकता है किः-
बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई…
इक शख्स सारे शहर को वीरान कर गया…।।
ओ3म शांतिः शांतिः शांतिः
-हीरेन्द्र सिंह राठौड़