दिल्ली वालों के लिए अभिशाप हैं ‘उपराज्यपाल को ज्यादा शक्तियां’

-डीडीए की लड़खड़ाती हालत के लिए उपराज्यपाल जिम्मेदार, अभी तक नहीं बना मास्टर प्लान
-दिल्ली को पूर्ण राज्य के नाम पर कार्यकर्ताओं को आंदोलन में झोंकती रही बीजेपी
                 जगदीश ममगांई

दिल्ली में ‘सरकार’ शब्द का अर्थ ‘उपराज्यपाल’ को परिभाषित करता राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) विधेयक संसद में पारित हो गया है। अब जनता द्वारा निर्वाचित दिल्ली के विधायकों की सरकार को किसी भी कार्यकारी कार्रवाई करने (निर्णय लेने) से पहले उपराज्यपाल की अनुमति लेनी होगी। दिल्ली के उपराज्यपाल की शक्तियों में लगातार वृद्धि करने को आतुर केन्द्र सरकार विशेषकर नरेन्द्र मोदी सरकार ने क्या कभी यह आकलन किया है कि उपराज्यपाल के पास पहले से ही प्रदत्त शक्तियों के क्षेत्र में उनका प्रदर्शन कैसा है। सफेद हाथी बन चुका डीडीए निम्न व मध्यम वर्ग को सस्ते व टिकाऊ आवास नहीं दे पाया, व्यवहारिक भवन-उपनियमों को न बनाकर दिल्ली को अनधिकृत निर्माण व स्लम में परिवर्तित कर दिया। लैंड पूलिंग पॉलिसी व अनधिकृत कालोनियों में मालिकाना अधिकार देने की योजना औंधे मुँह गिरी, किसानों से औने-पौने दामों में लाखों एकड़ अधिग्रहित भूमि पर हुए अवैद्य क़ब्जे को खाली नहीं करा सके। 2021 में अधिसूचित होने वाले मास्टर प्लान में देरी आदि की विफलता जग-जाहिर है।
दिल्ली में लगातार बिगड़ती कानून-व्यवस्था को सुधारने में उपराज्यपाल विफल रहे हालांकि आमजन केंद्रीय गृहमंत्री को कोसते हैं। दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश से वर्ष 2000 से हर वर्ष नियमित रुप से बंगलादेशी घुसपैठियों को दिल्ली पुलिस वापस भेजती थी, लेकिन पिछले 3-4 वर्ष से यह प्रक्रिया ठप्प पड़ी है। जबकि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की तरह यह भी सत्तारुढ़ बीजेपी का प्रिय मुद्दा होता था। उपराज्यपाल दिल्ली नगर निगमों के भी प्रशासक हैं, एक भी निगम के पास आवश्यक संख्या में आईएएस व वरिष्ठ अधिकारी नहीं है। काफी समय तक तो प्रत्येक के लिए निगम आयुक्त तक नहीं थे। दिल्ली में विधानसभा चुनाव में 38.5 प्रतिशत और लोकसभा चुनाव में 56.86 प्रतिशत मत बीजेपी ने प्राप्त किए, आमजन के प्रति जबाबदेही से दूरी रखते उपराज्यपाल को अधिकार देना क्या अपने इन मतदाताओं के हितों पर कुठाराघात नहीं है?
4 जुलाई 2018 को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने माना था कि दिल्ली के उपराज्यपाल को भूमि, पुलिस व व्यवस्था के मामलों को छोड़कर दिल्ली सरकार के मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना था, फैसले लेने का वास्तविक अधिकार निर्वाचित सरकार का है जिसके पास जनादेश है। दिल्ली प्रशासन में सेवाओं पर नियंत्रण, जांच आयोग गठित करने की शक्ति, और भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो पर नियंत्रण का मसला एक पीठ को सौंपा गया। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कहा, ‘अगर उपराज्यपाल के विभिन्न दृष्टिकोण के कारण मंत्रिपरिषद को अपने सुविचारित वैध निर्णय को लागू नहीं करने दिया जाता है तो सामूहिक जिम्मेदारी की अवधारणा विफल हो जाएगी’। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्टता से उपराज्यपाल के अवरोधक व्यवहार को नकारा, कहा कि या तो फैसले दिल्ली सरकार की मंत्रीपरिषद् को करने हैं या राष्ट्रपति को और उपराज्यपाल से अनुमति का तो कोई प्रावधान ही नहीं है। क्या सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले को केन्द्र सरकार ने अवांछित मान इसे पलटा है, ऐसे में न्यायालयों में लड़ी दिल्ली के अधिकार की लड़ाई दिल्लीवासियों के पैसे व समय की बर्बादी नहीं है?
दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश है जो संविधान की अनुसूची 1 में सूचीबद्ध है। अनुच्छेद 239 एए में जहां पुलिस, सेवाएं और भूमि से संबंधित विषयों को छोड़कर अनुसूची सात की राज्य सूची में सभी विषयों पर कानून बनाने के लिए दिल्ली को एक निर्वाचित विधान सभा दी गई है। केन्द्र सरकार अनुच्छेद 239-एए (3) (बी) को ढाल बनाकर उपराज्यपाल शासन कायम करना चाहती है जिसमें कहा गया है कि विधान सभा की शक्तियों के बावजूद, संसद किसी भी विषय पर कानून बना सकती है और मतभेदों के मामले में संसद द्वारा बनाए गए कानून लागू होंगे। अनुच्छेद 239 एए (4) में कहा गया है कि उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच किसी भी मतभेद के मामले में, उपराज्यपाल राष्ट्रपति को मामले भेजेगा और राष्ट्रपति द्वारा लिए गए निर्णयों के अनुसार कार्य करेगा। यह केंद्र सरकार को सशक्त बनाता है क्योंकि वह ही उपराज्यपाल की नियुक्ति करता है और राष्ट्रपति को भी केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार ही कार्य करना होता है।
अपनी स्थापना के साथ ही बीजेपी वर्ष 1980 में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग उठाने लगी थी, जनसंघ के दौर में भी सन् 1971 से यह मांग पार्टी के घोषणा पत्र व नीतियों में शामिल थी। हालांकि सन् 1977 में जनता पार्टी के रुप में केन्द्र की सत्ता में सहभागी जनसंघ ने सत्तारुढ़ होने के उपरान्त दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने पर कबूतर की तरह आंखें बंद कर ली थीं। वर्ष 1983 के महानगर परिषद् व नगर निगम चुनाव घोषणा पत्र में बीजेपी ने इस मांग को शामिल किया, वर्ष 1987 में मदन लाल खुराना के नेतृत्व में एक पखवाड़े की न्याय यात्रा निकाल पूरी दिल्ली में इस निमित्त जन-जागरण किया। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर खुराना ने दिल्ली बीजेपी को सड़कों पर संघर्ष के लिए उतार दिया था। महानगर परिषद् में बीजेपी की ओर से तत्कालीन नेता विपक्ष कालकादास ने वर्ष 1988 में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने एक निजी प्रस्ताव सदन में प्रस्तुत किया जिसे सत्तारुढ काँग्रेस सरकार ने नाकाम कर दिया। वर्ष 1989 में केन्द्र में बीजेपी के सहयोग से वी पी सिंह सरकार स्थापित हुई, बीजेपी के घोषणापत्र में पुनःलिखित दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग एक बार फिर तेज हुई। वर्ष 1989 में बालकृष्णन समिति ने सिफारिश की कि दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश के साथ उचित शक्तियों वाली जिम्मेदार विधान सभा और मंत्रिपरिषद् मिलनी चाहिए। 11 अप्रैल 1990 को सांसद मदन लाल खुराना बोट क्लब पर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गए, वी पी सिंह सरकार ने उनकी मांग को मानते हुए दिल्ली को राज्य का दर्जा देने की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भी पार्टी ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का वादा किया, बहुमत पाने के उपरान्त केंद्रीय मंत्री डॉ0 हर्षवर्धन द्वारा दिल्लीवासियों को विश्वास दिलाया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से सबसे पहली मांग यही लागू कराई जाएगी।
जून 1991 में केन्द्र में पी वी नरसिंह राव सरकार सत्ताशीन हो गई, दिल्ली कांग्रेस दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के विरोध के बावजूद क्योंकि पूर्ववर्ती वी पी सिंह सरकार इसके लिए प्रक्रिया प्रारंभ कर चुकी थी और बीजेपी आक्रमक थी लिहाजा संसद द्वारा संविधान संशोधन कर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार अधिनियम 1991 पारित कर दिल्ली को विधानसभा दी गई पर सी श्रेणी की, कम अधिकार वाली ही दी गई। दिल्ली के मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना सरकार द्वारा 1984 के सिख दंगों पर गठित सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश आर.एस.एस. नरूला जाँच आयोग के गठन व सिफारिश पर काँग्रेस की नरसिंह राव सरकार से टकराव हुआ, केन्द्र ने आयोग गठित करने के अधिकार पर सवाल उठाया। काँग्रेस की शीला दीक्षित सरकार व दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल विजय कपूर के बीच खींचतान के मद्देनजर, बिजनेस रुल अधिसूचित कर अर्थ संबंधी मामलों में उपराज्यपाल की पूर्वानुमति सहित कई नियम अधिसूचित कर अंकुश लगा दिल्ली के अधिकार पर कैंची चलाई। मदन लाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा, सुषमा स्वराज या शीला दीक्षित मुख्यमंत्री थे, सेवाएं हमेशा दिल्ली सरकार के अधीन रही हैं । केंद्र ने गृह मंत्रालय के माध्यम से 21 मई 2015 को एक अधिसूचना जारी की जिसमें निर्वाचित सरकार से स्थानांतरण और पोस्टिंग की शक्तियां छीन ली, भ्रष्टाचार निरोधक शाखा (एसीबी) दिल्ली को भी दिल्ली सरकार से ले लिया गया।
वर्ष 1998 में केन्द्र में बीजेपी नीत अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सत्ताशीन हुई, चुनाव घोषणा पत्र में शामिल दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की सुगबुगाहट फिर शुरू हो गई पर अब केन्द्र की बीजेपी सरकार इसमें ना-नुकर करने लगी। दुर्भाग्य यह है कि विपक्ष में रहते तो दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की वकालत सभी दल करते हैं पर सत्ता में आते ही क़ब्जा छोडने को तैयार नहीं होते हैं। वर्ष 2003 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में चेहरा बचाने के लिए फिर से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की प्रक्रिया शुरु की गई, उप-प्रधानमंत्री व केन्द्रीय गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी संसद में दिल्ली राज्य का विधेयक लाए जिसे संसद की स्थायी समिति को भेज दिया गया।
इस निमित्त दिल्ली बीजेपी की ओर से एक प्रारुप तैयार कर केन्द्र सरकार को सौंपा गया जिसके अनुसार संसद, राष्ट्रपति भवन, प्रधान मंत्री कार्यालय, दूतावास एवं गणमान्य व्यक्तियों के निवास नई दिल्ली में स्थित है, लिहाजा इन पर एनडीएमसी के माध्यम से केंद्र सरकार का नियंत्रण रहे तथा सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक अलग पुलिस बल या अर्धसैनिक बल का प्रावधान हो। शेष क्षेत्र के लिए दिल्ली पुलिस सीधे दिल्ली सरकार के नियंत्रण में रहे, वैसे भी कार्यकारी नियंत्रण में रहने से दिल्ली में कानून व्यवस्था की स्थिति बहुत खराब रहती है। दिल्लीवालों की सुरक्षा मायने रखती है, इसलिए विशिष्ट क्षेत्र के 15 हजार लोगों के लिए बाकी दिल्ली के लगभग पौने दो करोड़ लोगों के राजनीतिक अधिकारों और सुरक्षा को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। दिल्ली पुलिस के अलावा, यातायात पुलिस और दिल्ली विकास प्राधिकरण भी दिल्ली की निर्वाचित सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में लाया जाना चाहिए।
दिल्ली देश के सबसे तेजी से बढ़ते राज्यों में से एक है, जिसकी आर्थिक विकास दर 11 प्रतिशत से अधिक है। प्रारम्भ से ही दिल्ली का शहरी बुनियादी ढांचा सुदृढ रहा है, पिछले एक दशक में यह तेजी से बढ़ा है। दिल्ली की जनसंख्या 3.11 करोड़ से अधिक है। दिल्ली को पूर्ण राज्य न होने के कारण केंद्रीय वित्त आयोग की सिफारिशों के तहत दिल्ली को केंद्रीय करों में हिस्सेदारी, स्थानीय निकायों के लिए मूल और प्रदर्शन के आधार पर अनुदान, आपदा राहत के लिए अनुदान, राजस्व घाटा अंतर अनुदान आदि लाभांश नहीं मिलते हैं। दिल्लीवासियों से करीब पौने दो लाख करोड़ रुपये का केंद्रीय कर एकत्र होने पर भी हिस्से के रुप में 325 करोड रुपए ही मिलता है, यदि राज्य होता तो कर संग्रह का 32 फीसदी यानि करीब 56 हजार करोड़ रुपए दिल्ली को हिस्से के रुप में मिलता। दिल्ली की निगम भी 14 वें वित्त आयोग के तहत केंद्र सरकार से सीधे धन प्राप्त करने के लिए पात्र होते, निगमों को केन्द्र सरकार से सीधे धन प्राप्त हो यह बात वर्ष 2017 निगम चुनाव में बीजेपी ने वादा भी किया था।
दिल्ली के प्रशासन की तुलना लंदन से की जाती है। यूनाइटेड किंगडम इंग्लैंड की राजधानी लंदन में सरकार दो स्तरों पर होती है, लंदन विधानसभा और लंदन के मेयर। स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक देखभाल, कला और संस्कृति और पर्यावरण संरक्षण में लंदन की सेवाओं का प्रबन्धन केंद्रीय निकाय द्वारा किया जाता है। लंदन विधानसभा 16 कार्य समूह समितियां के माध्यम से भूमि अधिग्रहण एवं सामाजिक आवास, लंदन आवास बोर्ड , कौशल एवं रोजगार बोर्ड, अपराध नियंत्रण व जांच के लिए एक पुलिस और अपराध पैनल स्थापित करने एवं रणनीतिक महत्व की परियोजनाओं के संबंध में अतिरिक्त नियोजन शक्तियां हैं। एक शक्तिशाली मेयर इन-काउंसिल है। राजधानी होने के बावजूद भूमि व कानून-व्यवस्था का अधिकार वहां स्थानीय सरकार के पास है।
26 जनवरी 1950 को भारत में संविधान लागू हुआ तो दिल्ली को राज्य बनाया गया और वर्ष 1951 में दिल्ली में विधान सभा बनाई गई। वर्ष 1951 से 1956 तक दिल्ली में विधानसभा रही तब क्या संसद, राष्ट्रपति भवन, प्रधान मंत्री कार्यालय, दूतावास एवं गणमान्य व्यक्तियों के निवास नई दिल्ली में स्थित नहीं थे? तब कौन सा टकराव हुआ था! 19 अक्टूबर 1956 को नेहरू सरकार ने संविधान में संशोधन कर दिल्ली को एक केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) बना दिया, दिल्ली की विधान सभा और मंत्रिपरिषद भी समाप्त कर दी गईं। वैसे तो मोदी सरकार पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को दोषी बता उनकी गलतियों को सुधारने का दावा करती है तो दिल्ली से पूर्ण राज्य का दर्जा छीनने की उनकी गलती को क्यों नहीं सुधारती है?
(लेखक जगदीश ममगांई, भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता, राजनीतिक विष्लेशक, दिल्ली के मामलों के जानकार, दिल्ली नगर निगम की वर्क्स कमेटी के पूर्व चेयरमैन, स्वतंत्र प्रहरी एनजीओ के अध्यक्ष, कोटा यूनीवर्सिटी की वीसी सलेक्शन कमेटी के पूर्व चेयरमैन, दिल्ली विश्वविद्यालय कोर्ट के पूर्व सदस्य हैं। वह ‘लोक शिल्पी दिल्ली नगर निगम’ और ‘रंग बदलती दिल्ली’ के लेखक हैं। )