‘तराजू न तलवार’ मायावती को ‘तिलक’ से प्यार!

-नरम हिंदुत्व के सहारे ‘दलितों की मसीहा’ की सियासी नाव
-2007 वाली रणनीति से सज रहा 2022 के सपनों का महल

हीरेन्द्र सिंह राठौड़/ नई दिल्ली
‘तिलक-तराजू और तलवार’ का नारा देकर कभी सवर्णों को पानी पी-पीकर कोसने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की मुखिया मायावती अब ‘तिलक’ के सहारे मिशन-2022 के तहत अपनी ताजपोशी का ख्वाब सजा रही हैं। उत्तर प्रदेश में बीएसपी ने अपनी 2007 की सोशल इंजीनियरिंग के तहत सवर्णों के एक वर्ग ‘तिलक’ यानी ब्राह्मणों को रिझाने के लिए ‘ब्राह्मण-दलित’ कार्ड खेलना शुरू कर दिया है। बीएसपी ने अपने इस मिशन की शुरूआत भगवान राम की नगरी अयोध्या से की है।

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ब्राह्मण संगोष्ठी के आयोजन के साथ ही चर्चा गर्म हो गई है कि क्या बसपा भी भाजपा और अन्य सियासी दलों की तर्ज पर नरम हिन्दुत्व के रास्ते पर आ गई है? ब्राह्मण सम्मेलनों के समय और स्थान में अयोध्या, मथुरा और काशी के शामिल होने और अयोध्या में रामलला के दर्शन के साथ सम्मेलन की शुरुआत करने को लेकर ऐसे सवाल उठ रहे हैं। बीएसपी ने वर्ष 2007 की तरह इस बार फिर से सोशल इंजीनियरिंग की कवायद शुरू की है। बीएसपी की यह मजबूरी है कि पिछले कुछ समय में उसका मुस्लिम मतदाता तेजी से पार्टी से दूर होता जा रहा है।
बीएसपी के लगातार गिरते वोट प्रतिशत ने मायावती को अपनी नीति में बदलावा के लिए मजबूर किया है। बीएसपी ने वर्ष 2007 में ब्राह्मणों के साथ क्षत्रियों को लेकर चुनाव लड़ा था और बसपा ने अपने बलबूते पर सरकार बनाई थी।ं उस समय पार्टी को कुल 30.43 फीसदी वोटों के साथ 206 सीट हासिल हुई थीं। लेकिन समय के साथ बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग की धार कुंद होती चली गई। 2017 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के वोट प्रतिशत में वर्ष 2007 के मुकाबले 8.2 फीसदी की गिरावट आ गई। यह वर्ष 2012 में 25.95 फीसदी वोट के साथ कुल 80 सीटें और वर्ष 2017 में 22.23 फीसदी वोट के साथ सिर्फ 19 सीटें आई थीं।

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बसपा ने अपना वोट प्रतिशत बढ़ाने के लिए ही 75 जिलों में ब्राह्मण संगोष्ठियां करने का फैसला किया है। इसके तहत मथुरा, काशी और प्रयागराज में भी कार्यक्रम किये जा रहे हैं। ऐसे में बसपा के वरिष्ठ नेताओं द्वारा अयोध्या में रामलला के दर्शन करने की तरह ही अन्य मंदिरों में भी दर्शन कर कार्यक्रम शुरू करें तो हैरत नहीं होनी चाहिए। सियासी जानकारों का कहना है कि बसपा सुप्रीमो को यह एहसास हो चुका है कि बिना बेस वोट बैंक में अन्य मतदाताओं को जोड़े उसका सत्ता में आना मुश्किल है। लिहाजा अब यह नरम हिन्दुत्व या कहें कि ब्राह्मण कार्ड खेलकर भाजपा के वोटों में सेंधमारी की कोशिश की जा रही है।
यूपी की सियासत में नरम हिंदुत्व के महत्व को समझते हुए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने भी अपने रूख में बदलाव किया है। बता दें कि सपा मुखिया अखिलेश यादव भी कुछ दिन पहले चित्रकूट के दौरे पर गए थे। उन्होंने वहां मंदिरों के दर्शन किए और परिक्रमा भी की थी। अखिलेश ने कहा कि राम केवल भाजपा के ही नहीं हैं बल्कि उनके तो राम और कृष्ण दोनों हैं। अपने वोट बैंक के साथ ही ब्राह्मणों को जोड़ने के लिए उन्होंने भी ब्राह्मण नेताओं को टिकट दिए। केवल यही नहीं बल्कि उन्होंने तो पार्टी मुख्यालय में परशुराम जयंती का आयोजन करवा कर यह संदेश देने की कोशिश की कि सपा ही ब्राह्मणों की सबसे ज्यादा हितैषी है।

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प्रियंका व राहुल गांधी तो पहले से ही मंदिरों में दर्शन करके अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत करते रहे हैं। हालांकि यह तो 2022 के चुनावी नतीजे ही बतायेंगे कि बसपा का यह दांव कितना कारगर साबित होगा। क्योंकि भारतीय जनता पार्टी ने भी अपनी अलग तरह की सोशल इंजीनियरिंग शुरू कर दी है। यूपी सरकार में कैबिनेट मंत्री ब्रजेश पाठक ने कहा है कि ‘ब्राह्मण अब दोबारा नहीं ठगे जाएंगे। वे बसपा का चरित्र समझ चुके हैं। बसपा का यह दांव अब अप्रासंगिक हो चुका है।’
दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के नाम की माला भले ही सारे सियासी दल जपते हों, लेकिन उत्तर प्रदेश में सवर्णों को साधकर चलना भी उतना ही जरूरी है। ताजा आंकड़े के अनुसार सूबे की करीब 25 फीसदी सवर्णों की आबादी चुनावी हवा का रुख मोड़ने में सक्षम हैं। 23 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश की 80 में से करीब 40 संसदीय सीटों पर सवर्णों की निर्णायक भूमिका रहती है। सवर्ण मतदाताओं की अहमियत का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि खुद को दलितों की हितैशी बताने वाली मायावती की बहुजन समाजवादी पार्टी 2007 में सवर्णों को साथ मिलाकर सरकार बना चुकी हैं।

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बात 2019 के लोकसभा चुनाव की करें तो, बीजेपी अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश की 80 में से 73 संसदीय सीटों पर कब्जा करने में कामयाब रही थी। इस जीत में सवर्ण मतदाताओं का बहुत बड़ा योगदान रहा। माना जा रहा है कि लोकसभा की जिन 73 सीटों पर पिछले चुनाव में कमल खिला, उनमें से 37 सीटों पर भाजपा की जीत का परचम लहराने में इन्हीं सवर्ण मतदाताओं ने अहम भूमिका अदा की थी।
उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी की ऐतिहासिक जीत के पीछे भी सवर्ण मतदाताओं का भारी समर्थन रहा। इस चुनाव में सर्वाधिक 44 फीसदी यानी सवा सौ से ज्यादा सवर्ण विधायक जीते और विधानसभा में पहुंचे। सीधे कहा जाए, तो 2017 विधानसभा चुनाव में बीजेपी प्रत्याशियों की जीत या हार के पीछे 50 फीसदी सवर्ण मतदाताओं का योगदान रहा। यहां तक कि हाल ही में संपन्न हुए निकाय चुनाव में भी बीजेपी ने सवर्ण मतदाताओं के दम पर ही वर्चस्व कायम किया है।
तराजू-तलवार से इस बार दूरी
बसपा प्रमुख मायावती ने 2007 के विधानसभा चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग के तहत ब्राह्मणों के साथ राजपूतों-वैश्यों यानी ‘तराजू और तलवार’ को भी अपने साथ मिलाया था। लेकिन इस बार केवल बीएसपी ने केवल ब्राह्मणों की बात की है। केवल ब्राह्मण सम्मेलनों का ही आयोजन किया जा रहा है। ऐसे में सवर्णों में दूसरे वर्गों के लोगों की स्वतः ही बसपा से दूरी बन जायेगी। बिना तराजू और तलवार के बीएसपी के चुनावी समर में उतरने से बहुत ज्यादा लाभ मिलना मुश्किल है।
सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण
बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग में मोदी सरकार द्वारा गरीब सवर्णों को दिया गया 10 फीसदी आरक्षण आड़े आयेगा। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी की ऐतिहासिक जीत में युवा मतदाताओं का अहम रोल रहा था। इस चुनाव में भी युवाओं की निर्णायक भूमिका रहेगी। किसी प्रकार का आरक्षण न मिलने से गरीब सवर्ण युवाओं में हमेशा सरकार के प्रति रोष रहा है, लेकिन मौजूदा मोदी सरकार ने उनकी नाराजगी को साधते हुए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था लागू कर दी है। हालांकि इस 10 फीसदी आरक्षण का लाभ करीब सवर्ण उठा नहीं पा रहे हैं।
एससी एक्ट मे संशोधन से सवर्णों में नाराजगी
बीजेपी सरकार ने भले ही गरीब सवर्णों को सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थानों में 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला लागू कर दिया हो, लेकिन मोदी सरकार द्वारा एसटी-एसटी एक्ट में संशोधन के चलते ये मतदाता वर्ग बीजेपी से खासा नाराज भी है। इस नाराजगी का खामियाजा बीजेपी ने पिछले समय में तीन राज्यों (मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़) से अपनी सत्ता गंवा कर झेली भी है। यह मुद्दा बीएसपी को भी सवर्ण मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में मुश्किल खड़ी कर सकता है।
25 फीसदी सवर्ण आबादी पर एक नजर
ब्रह्मण- 13 फीसदी
क्षत्रिय- 7 फीसदी
वैश्य- 3 फीसदी
त्यागी- भूमिहार- 2 फीसदी
राज्य की आबादी में भागीदारी
सवर्ण- 25 फीसदी
अनुसूचित जाति/जनजाति- 20 फीसदी़
ओबीसी- 37 फीसदी
मुस्लिम- 18 फीसदी (दलित व पिछड़े मुस्लिम भी शामिल)