UP: अब ‘तिलक’ के सहारे गढ़ी जा रही यूपी की नई ‘सियासी तस्वीर’!

-परशुराम के नाम पर गरमाई जा रही यूपी की सियासत
-सपा और बसपा में परशुराम पर कब्जे की कवायद तेज
-अब अंबेडकर या लोहिया नहीं, परशुराम हैं ‘सियासी आदर्श’

हीरेन्द्र सिंह राठौड़/ लखनऊ
कभी ‘तिलक, तराजू और तलवार…’ का नारा देकर सवर्णों के विरोध के सहारे उत्तर प्रदेश की सत्ता हथियाने वाली मायावती अब ‘तिलक’ के सहारे यूपी की सियासत को कब्जाने की फिराक में हैं। यूपी में ब्राह्मण वोट बैंक को लेकर मचे घमासान के बीच बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने भी सत्ता में आने पर समाजवादी पार्टी से भी ज्यादा बड़ी परशुराम की भव्य प्रतिमा लगाने की बात कहकर सूबे के सियासी मैदान में हलचल बढ़ा दी है। अब सपा के लिए राम मनोहर लोहिया और बसपा के लिए डॉक्टर भीमराव अंबेडकर नहीं बल्कि दोनों के लिए परशुराम ही ‘सियासी आदर्श’ बनकर रह गए हैं।

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मायावती ने कहा कि यूपी में बसपा की सरकार बनने पर ब्राह्मण समाज के आस्था व स्वाभिमान के प्रतीक ‘श्री परशुराम’ की भव्य प्रतिमा लगाकर ब्राह्मण समाज को सम्मान दिया जाएगा। मायावती ने कुछ दूसरी जातियों को भी अपने पाले में लाने के लिए कहा कि उनकी पार्टी के सत्ता में आने पर सभी जातियों व धर्मों में जन्मे महान संतों, गुरुओं व महापुरुषों के नाम परआधुनिक अस्पताल और सुविधाओं वाले कम्यूनिटी सेंटर बनाये जाएंगे।

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दरअसल अयोध्या में चिर-प्रतीक्षित राम मंदिर का निर्माण कार्य शुरू होने उत्तर प्रदेश की सियासत में बसपा, सपा और कांग्रेस खुद को बीजेपी के सामने उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। हालांकि यूपी में 2022 में विधानसभा चुनाव होना है। लेकिन कोई भी दल किसी भी तरह का मौका नहीं चूकना चाहता। यही कारण है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी अलग अलग सूबे के ब्राह्मण वोट बैंक पर नजरें गढ़ाए बैठे हैं।

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यूपी की सियासत में सपा और बसपा का यह ब्राह्मण प्रेम कानपुर की बिकरू की घटना के बाद यूपी एसटीएफ द्वारा बदमाशों के धड़ाधड़ किये गए एनकाउंटर के बाद उमड़ा है। राजनीतिक दलों द्वारा छद्म संगठनों के नाम पर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का विरोध किया जा रहा है। सीएम योगी के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है कि उनके शासन में केवल ब्राह्मण ही सुरक्षित नहीं हैं। समाजवादी पार्टी की ओर से घोषणा की गई थी कि लखनऊ में परशुराम की बड़ी प्रतिमा लगवाई जाएगी। इसके बाद बसपा सुप्रीमो भी ‘तिलकधारी’ सियासत में कूदते हुए बोलीं कि वह सत्ता में आने के बाद परशुराम की सपा से भी बड़ी प्रतिमा लगवाएंगी।

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मायावती ने सपा पर निशाना साधते हुए कहा कि समाजवादी पार्टी की सरकार में संतों-महापुरुषों के नाम पर संस्थान और जिलों के जो नाम बदले गए हैं, उसे सत्ता में आते ही उनके नाम पर वापस किया जाएगा। सपा सरकार में लिया गया ऐसा फैसला उनके मुखिया की दलित व अन्य पिछड़ा वर्ग विरोधी मानसिकता को दर्शाता है। बता दें कि इससे पहले समाजवादी पार्टी केवल राम मनोहर लोहिया के नाम पर और बसपा केवल डॉक्टर अंबेडकर के नाम पर ही जिलों, अस्पतालों, पार्कों और दूसरे संस्थानों के नाम रखवाती रही हैं।
बसपा के साथ है ब्राह्मण समाज!
मायावती ने कहा कि समाजवादी पार्टी अब ब्राह्मण समाज के वोटों की खातिर अपने राजनीतिक स्वार्थ में ‘श्री परशुराम’ की ऊंची प्रतिमा लगाने की बात कर रही है। उसे अपने शासनाकाल में ऐसा करना चाहिए था, लेकिन नहीं किया। सपा चुनाव नजदीक देखकर ऐसी बात कर रही है। इससे साफ है कि सपा की स्थिति प्रदेश में बहुत ज्यादा खराब हो रही है। ऐसे में ब्राह्मण समाज सपा के साथ कतई जाने वाला नही है। वैसे भी सपा सरकार में ब्राह्मणों का उत्पीड़न और शोषण सबसे ज्यादा हुआ है। ब्राह्मण समाज को बसपा पर पूरा भरोसा है।
राम मंदिर पर बीजेपी को घेरा
मायावती ने राम मंदिर को लेकर बीजेपी को भी घेरा है। उन्होंने कहा कि राम मंदिर निर्माण के नाम पर राजनीति ठीक नही है। राम मंदिर लोगों की धार्मिक आस्था व भावनाओं से जुड़ा है। 5 अगस्त को भूमि पूजन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ दलित समाज के राष्ट्रपति को भी बुलाया जाता तो दलित समाज में बेहतर संदेश जाता। दलित संत भी चिल्लाते रहे कि उनकी उपेक्षा की गई व उनका तिरस्कार हुआ इस पर भी ध्यान नहीं दिया गया।
याद आया 2007 का विधानसभा चुनाव
मायावती को 2007 का विधानसभा चुनाव भी याद आ गया। उन्होंने कहा कि यूपी में वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में दलितों, पिछड़ों, मुस्लिम व अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ अपरकास्ट में ब्राह्मण समाज के अधिकतर वोट बसपा को मिले थे। क्षत्रिय समाज को भी उचित भागीदारी दी गई थी। हालांकि तब चुनाव में ब्राह्मण समाज को कांग्रेस, सपा और भाजपा ने गुमराह करने की पूरी कोशिश की थी।
10 फीसदी वोट पर कब्जे की कवायद
सियासी जानकार बताते हैं कि सपा के पास यादव-मुस्लिम और बसपा के पास एससी-मुस्लिम वोट बैंक का गठजोड़ है। दोनों ही दल सत्ता में वापसी के लिए यूपी के 10 फीसदी ब्राह्मण वोट बैंक पर अपनी नजरें गढ़ाए बैठे हैं। हालांकि राज्य में बीजेपी के पास ज्यादातर सवर्ण यानी कि ब्राह्मण, वैश्य और ठाकुर वोटर्स हैं। राम मंदिर निर्माण शुरू होने के बाद सूबे में बीजेपी का अपना वोट बैंक और मजबूत हुआ है। इसलिए सपा-बसपा ही नहीं बल्कि कांग्रेस ने भी यूपी में ब्राह्मण कार्ड को अपना हथियार बनाया है।
सपा का सपना… ब्राह्मण वोट हो अपना
साल 2017 में सत्ता सपा मुखिया अखिलेश यादव ने बीजेपी के हाथों सत्ता गंवाई थी। इसके बाद 2019 में बसपा और राष्ट्रीय लोकदल से हाथ मिलाकर चुनाव लड़ा गया। लेकिन लोकसभा चुनाव में इस गठबंधन के के सारे समीकरण फेल हो गये थे। इसके बाद अखिलेश यादव अब सूबे में नए राजनीतिक समीकरण बनाने जुटे हैं। यूपी में हुए धड़ाधड़ एनकाउंटर्स के बाद पहले ब्राह्मण कार्ड को हवा दी गई और अब मौके की नजाकत को समझते हुए अखिलेश यादव ब्राह्मणों को साधने में जुट गए हैं। समाजवादी पार्टी ने जयपुर में ब्राह्मणों के प्रतीक देवता भगवान परशुराम की मूर्ति बनवा डाली और उसे लखनऊ में लगवाने का ऐलान किया है।
चुनाव में ब्राह्मण-ठाकुर को लड़ाने की चाल
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी कभी सवर्ण हितैषी नहीं रही हैं। दोनों दलों पर सवर्ण विरोधी और एससी, मुस्लिम ओर यादवों का हितैषी होने के आरोप लगते रहे हैं। लेकिन अब अचानक दोनों सपा-बसपा नेताओं का ब्राह्मण प्रेम जाग उठा है। दूसरी ओर बीजेपी सवर्णों के एकमुश्त वोट बैंक पर कब्जा जमाए बैठी है। जबकि सीएम योगी आदित्यनाथ को ठाकुर बताकर ठाकुर हितैषी बनाकर प्रचारित किया जा रहा है। एसे में कुछ राजनीतिक दलों द्वारा ब्राह्मणों को उकसाकर सूबे में ठाकुरों के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। बता दें कि मध्य यूपी से लेकर पूर्वांचल तक परंपरागत तौर पर उत्तर प्रदेश में राजनीतिक रूप से ब्राह्मण और ठाकुरों में एक प्रतिस्पर्धा रही है। इसी प्रतिस्पर्धा को अलग-अलग समय पर बड़े नेताओं और पार्टियों ने भुनाया है।
सपा ने 2007 में लगाई सेंध
उत्तर प्रदेश का सवर्ण वोट भले ही लंबे समय से पारंपरिक रूप से बीजेपी के साथ जुड़ा रहा हो, लेकिन 2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने पहली बार सवर्ण वोट बैंक में सेंध लगाने में सफलता हासिल की थी। तब भी उन्होंने सतीश चंद्र मिश्र के जरिए ब्राह्मण कार्ड खेला था। उस समय बसपा ने ब्राह्मणों को बड़े स्तर पर जोड़ने के लिए अभियान चलाया था। कुछ हद तक बसपा की यह कोशिश कामयाब भी रही थी। लेकिन 2012 आते-आते ब्राह्मणों का बसपा से मोह भंग हो गया थज्ञ। बसपा सुप्रीमो मायावती को अब भी सवर्ण वर्ग में ब्राह्मण ही सबसे कमजोर कड़ी नजर आ रहा है। इसलिए परशुराम के बहाने सपा, कांग्रेस और बसपा ब्राह्मण वोट बैंक को साधने में जुट गई हैं।
अखिलेश यादव ने 2012 में साधा
समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने भी 2012 में ब्राह्मण वोट बैंक को साधने की कोशिश की थी। उन्होंने चुनाव में जीत के बाद सत्ता में आते ही मायावती के ब्राह्मण वोट बैंक की काट की शुरुआत कर दी थी। अखिलेश ने सत्ता में रहते हुए जानेश्वर मिश्र के नाम पर पार्क बनवाया तो सूबे में भगवान परशुराम जयंती पर छुट्टी की घोषणा भी की थी। इतना ही नहीं सपा हर साल पार्टी कार्यालय में परशुराम जयंती भी मनाती रही है। लेकिन 2017 आते-आते समाजवादी पार्टी से भी ब्राह्मणों का मोह भंग हो गया था।