-आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होते गुप्त नवरात्रि
आचार्य रामगोपाल शुक्ल/ नई दिल्ली
हिंदू धर्म संसार का सबसे प्राचीनतम धर्म यानी सनातन संस्कृति है। जनसंख्या या फिर कहें कि इसे मानने वालों की संख्या के आधार पर कहें तो यह विश्व का सबसे बड़ा तीसरा धर्म है। वैदिक धर्म में एक वर्ष में कुल 4 नवरात्रे मनाने की परंपर है। इनमें से दो प्रकट एवं दो गुप्त नवरात्रे होते हैं। गुप्त नवरात्रे साल में माघ एवं आषाढ़ मास में पड़ते हैं। इस साल जुलाई महीने की 11 तारीख को आषाढ़ मास के गुप्त नवरात्रे शुरू हो रहे हैं। हिंदू धर्म में गुप्त नवरात्रों का विशेष महत्व बताया गया है। इस नवरात्रि में तांत्रिक और सात्विक दोनों प्रकार की पूजा की जाती है। इस बार यह नवरात्रे 18 जुलाई 2021 दिन रविवार को समाप्त होंगे। गुप्त नवरात्रि में मां दुर्गा के साथ तांत्रिक 10 महाविद्याओं को प्रसन्न करने के लिए पूजा की जाती है। आम तौर पर गुप्त नवरात्रे पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और आसपास के इलाकों में मनाये जाते हैं।
इस तरह करें पूजा
गुप्त नवरात्रों के दौरान साधक तांत्रिक और अघोरी मां दुर्गा की आधी रात में पूजा करते हैं। इसके लिए सुबह जल्दी उठें और स्नान करने के बाद स्वच्छ कपड़े पहनें। नवरात्र की सभी पूजन सामग्री को एकत्रित करें। पूजा की थाली सजाएं। मां दुर्गा की प्रतिमा को घर के गुप्त स्थान पर लाल रंग के वस्त्र सुनहरे गोटे वाले से सजाएं। मट्टी के बर्तन में जौ के बीज बोएं और नवमी तक प्रति दिन पानी का छिड़काव करें। पूर्ण विधि के अनुसार शुभ मुहूर्त में कलश को स्थापित करें। इसमें पहले कलश को गंगा जल से भरें, उसके मुख पर आम की पत्तियां लगाएं और उस पर नारियल रखें। कलश को लाल कपड़े से लपेटें और कलावा के माध्यम से उसे बांधें। अब इसे मिट्टी के बर्तन के पास रख दें। फूल, कपूर, अगरबत्ती, ज्योत के साथ पंचोपचार पूजा करें। नौ दिनों तक मां दुर्गा से संबंधित मंत्रों का जाप करें और माता का स्वागत कर उनसे सुख-समृद्धि की कामना करें। अष्टमी या नवमी को दुर्गा पूजा के बाद नौ कन्याओं का पूजन करें और उन्हें तरह-तरह के व्यंजनों (पूड़ी, चना, हलवा) का भोग लगाएं। आखिरी दिन दुर्गा के पूजा के बाद घट विसर्जन करें, मां की आरती गाएं, उन्हें फूल, चावल चढ़ाएं और बेदी से कलश को उठाएं।
माता को रोजाना लाल पष्प चढ़ाना अत्यंत शुभ माना जाता है। इसके अलावा मां के सामने रोजाना सरसों के तेल का दीपक जलाकर ’ॐ दुं दुर्गायै नमः’ मंत्र का कम से कम 108 बार जाप करें। उसके बाद आरती आदि करके पूजा समाप्त करें।
आषाढ़ मास के गुप्त नवरत्र की घटस्थापना मुहूर्त
11 जुलाई 2021 रविवार को घट स्थापना का शुभ मुहूर्त सुबह 05ः31 से सुबह 07ः47 (अवधि 2 घंटे 16 मिनट) है। घट स्थापना का अभिजित मुहूर्त सुबह 11ः59 से दोपहर 12ः54 तक का है। प्रतिपदा तिथि 10 जुलाई 2021 को सुबह 06ः46 मिनट से शुरू होकर 11 जुलाई 2021 को सुबह 07ः47 मिनट पर समाप्त होगी।
दस महाविद्या पूजा मंत्र
काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी।
भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा।
बगला सिद्ध विद्या च मातंगी कमलात्मिका
एता दशमहाविद्याः सिद्धविद्या प्रकीर्तिताः।।
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1. काली
मंत्र “ॐ क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं स्वाहाः“
2. तारा
देवी काली ही, नील वर्ण धारण करने के कारण ‘तारा’ नाम से जानी जाती हैं । दोनों शिव रूपी शव पर प्रत्यालीढ़ मुद्रा धारण किये हुए आरूढ़ हैं, अंतर केवल देवी काली शव रूपी शिव पर आरूढ़ हैं तथा देवी तारा जलती हुई चिता पर आरूढ़ हैं। दोनों का निवास स्थान श्मशान भूमि है। देवी तारा ने भगवान शिव को बालक रूप में परिवर्तित कर, अपना स्तन दुग्ध पान कराया था। समुद्र मंथन के समय कालकूट विष का पान करने के परिणाम स्वरूप, भगवान शिव के शरीर में जलन होने लगी तथा वे तड़पने लगे, देवी ने उनके शारीरिक कष्ट को शांत करने के लिए अपने अमृतमय स्तन दुग्ध पान कराया। देवी काली के समान ही देवी तारा का सम्बन्ध निम्न तत्वों से हैं।
तारास्तोत्रम्
मातर्नीलसरस्वति प्रणमतां सौभाग्यसम्पत्प्रदे प्रत्यालीढपदस्थिते शवहृदि स्मेराननाम्भोरुहे।
फुल्लेन्दीवरलोचने त्रिनयने कर्त्रीकपालोत्पले खङ्गं चादधती त्वमेव शरणं त्वामीश्वरीमाश्रये।।1।।
मंत्र “ॐ ह्लीं स्त्रीं हुं फट“
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3. त्रिपुर सुंदरी
गुप्त नवरात्रि का तीसरा दिन आद्य महाविद्या त्रिपुर सुंदरी का होता है। देवी त्रिपुर सुंदरी अनुपम सौंदर्य, भक्तों को अभय प्रदान करने वाली, यौवनयुक्त और तीनों लोकों में विराजमान है और उन्हें कई नामों से जाना जाता है। इन्हें राज-राजेश्वरी, बाला, ललिता, मीनाक्षी, कामाक्षी, शताक्षी, कामेश्वरी कहा जाता है।
बालार्क युत तैजसं त्रिनयनां रक्ताम्बरोल्लसिनीं। नानालंकृतिराजमानवपुषं बालोडुराट शेखराम्।।
हस्तैरिक्षु धनुः सृणि सुमशरं पाशं मुदा विभ्रतीं। श्री चक्र स्थितःसुन्दरीं त्रिजगतधारभूतां भजे।।
ललिता त्रिपुर सुंदरी ध्यान मंत्र
अरूण किरण जालैरंचिताशावकाशा विधृतजपपटीका पुस्तकाभीतिहस्ता ।
इतरकरवराढया फुल्लकह्लारसंस्था निवसतु हृदि बाला नित्यकल्याणशीला
मंत्र कृ “ॐ ऐं ह्लीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नमः “
माँ आद्य महाविद्या त्रिपुर सुंदरी कवच
ॐ पूर्वे मां भैरवी पातु बाला मां पातु दक्षिणे । मालिनी पश्चिमे पातु त्रासिनी उत्तरेऽवतु ।।
ऊधर्व पातु महादेवी महात्रिपुरसुन्दरी । अधस्तात् पातु देवेशी पातालतलवासिनी ।।
आधारे वाग्भवः पातु कामराजस्तथा हदि । डामरः पातु मां नित्यं मस्तके सर्वकामदः ।।
ब्रह्मरन्ध्रे सर्वगात्रे छिद्रस्थाने च सर्वदा । महाविद्या भगवती पातु मां परमेश्वरी ।।
ऐं ह्लीं ललाटे मां पातु क्लीं क्लूं सश्च नेत्रयोः । नासायां मे कर्णयोश्च द्रीं द्रैं द्रां चिबुके तथा ।।
सौः पातु गले ह््रदये सह ह्लीं नाभिदेशके । कलह्लीं क्लीं स्त्रीं गुहादेशे स ह्लीं पादयोस्तथा ।।
सह्लीं मां सर्वतः पातु सकली पातु सन्धिषु । जले स्थले तथाऽऽकाशे दिक्षु राजग्रहे तथा ।।
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4. भुवनेश्वरी
भुवनेश्वरी महाविद्या का स्वरूप सौम्य है और इनकी अंगकान्ति अरुण है। भक्तों को अभय और समस्त सिद्धियाँ प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है। वास्तव में मूल प्रकृति का ही दूसरा नाम भुवनेश्वरी है। इन्होंने ही दुर्गमासुर को युद्ध में मारकर उसके द्वारा अपहृत वेदों को देवताओं को पुनः सौंपा था। उसके बाद इन भगवती भुवनेश्वरी का एक नाम दुर्गा प्रसिद्ध हुआ।
उद्यद्दिनद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम् ।
स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशां- ऽभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम् सिन्दूरारुणविग्रहां त्रिनयनां माणिक्यमौलिस्फुरत् ।
तारानायकशेखरां स्मितमुखीमापीनवक्षोरुहाम् ॥
पाणिभ्यामलिपूर्णरत्नचषकं संविभ्रतीं शाश्वतीं । सौम्यां रत्नघटस्थमध्यचरणां द्यायेत्परामम्बिकाम् ॥
माँ आद्य महाविद्या भुवने,वरी कवच
ह्लीं बीजं मे शिरः पातु भुवनेश्वरी ललाटकम् । ऐं पातु दक्षनेत्रं मे ह्लीं पातु वामलोचनम् ।।
श्रीं पातु दक्षकणर्ण मे त्रिवर्णात्मा महेश्वरी । वामकर्ण सदा पातु ऐं घ्राणं पातु मे सदा ।।
ह्लीं पातु वदनं देवी ऐं पातु रसनां मम । श्रीं स्कन्धौ पातु नियतं ह्लीं भुजौ पातु सर्वदा ।।
क्लीं करौ त्रिपुरेशानी त्रिपुरैश्वर्यदायिनी।।
ॐ पातु ह््रदयं ह्लीं मे मध्यदेशं सदाऽवतु । क्री पातु नाभिदेशं सा त्र्यक्षरी भुवनेश्वरी ।।
सर्वबीजप्रदा पृष्ठं पातु सर्ववशंकरी । ह्लीं पातु गुदे शं मे नमो भगवती कटिम् ।।
माहेश्वरी सदा पातु सक्थिनी जानुयुग्मकम् । अन्नपूर्णा सदा पातु स्वाहा पातु पदद्वयम् ।।
सप्तदशाक्षरी पायाद्न्नपूर्णात्मिका परा । तारं माया रमा कामः षोडशार्णा ततः परम् ।।
शिरस्स्था सर्वदा पातु विंशत्यर्नात्मिका परा । तारदुर्गे युगं रक्षिणी स्वाहेति दशाक्षरी ।।
जयदुर्गा धनश्यामा पातु मां पूर्वतो मुदा । मायावीजादिका चैषा दशार्णा च परा तथा ।।
उत्तप्तकांचनाभासा जयदुर्गाननेऽवतु । तारं ह्लीं दुं दुर्गायै नमोऽष्टार्णात्मिका परा ।।
शंखचक्रधनुर्बाणधरा मां दक्षिणेऽवतु । महिषामर्दिनी स्वाहा वसुवर्णात्मिका परा ।।
नैऋत्यां सर्वदा पातु महिषासुरनाशिनी । माया पद्धावती स्वाहा सप्तार्ना परिकीर्तिता ।।
पद्धावती पद्धसंस्था पश्चिमे मां सदावतु । पाशानकुशपुटा माये हि परमेश्वरि स्वाहा ।।
त्रयोदशार्णा भुवनेश्वरीधया अश्वारुढ़ाननेवतु । सरस्वती पञ्चशरे नित्यक्लिन्ने मदद्रवे ।।
स्वाहा रव्यक्षरी विद्या मामुत्तरे सदावतु । तारं माया तु कवचं खं रक्षेत् सदा वधूः ।।
हूँ क्षे फट् महाविद्या द्वाद्शार्णाखिलप्रदा । त्वरिताष्टाहिभिः पायाच्छिवकोणे सदा च माम् ।।
ऐं क्लीं सौः सा ततो वाला मामूधर्वदेशतोऽवतु । बिन्द्वन्ता भैरवी बाला भूमौ च मां सदावतु ।।
मन्त्र कृ “ॐ ऐं ह्लीं श्रीं नमः“
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5. छिन्नमस्ता स्तुति
एक बार देवी पार्वती हिमालय भ्रमण कर रही थी उनके साथ उनकी दो सहचरियां जया और विजया भी थीं, हिमालय पर भ्रमण करते हुये वे हिमालय से दूर आ निकली, मार्ग में सुनदर मन्दाकिनी नदी कल कल करती हुई बह रही थी, जिसका साफ स्वच्छ जल दिखने पर देवी पार्वती के मन में स्नान की इच्छा हुई, उनहोंने जया विजया को अपनी मनशा बताती व उनको भी सनान करने को कहा, किन्तु वे दोनों भूखी थी, बोली देवी हमें भूख लगी है, हम सनान नहीं कर सकती, तो देवी नें कहा ठीक है मैं सनान करती हूँ तुम विश्राम कर लो, किन्तु सनान में देवी को अधिक समय लग गया, जया विजया नें पुनह देवी से कहा कि उनको कुछ खाने को चाहिए, देवी सनान करती हुयी बोली कुच्छ देर में बाहर आ कर तुम्हें कुछ खाने को दूंगी, लेकिन थोड़ी ही देर में जया विजया नें फिर से खाने को कुछ माँगा, इस पर देवी नदी से बाहर आ गयी और अपने हाथों में उनहोंने एक दिव्य खडग प्रकट किया व उस खडग से उनहोंने अपना सर काट लिया, देवी के कटे गले से रुधिर की धारा बहने लगी तीन प्रमुख धाराएँ ऊपर उठती हुयी भूमि की और आई तो देवी नें कहा जया विजया तुम दोनों मेरे रक्त से अपनी भूख मिटा लो, ऐसा कहते ही दोनों देवियाँ पार्वती जी का रुधिर पान करने लगी व एक रक्त की धारा देवी नें स्वयं अपने ही मुख में ड़ाल दी और रुधिर पान करने लगी, देवी के ऐसे रूप को देख कर देवताओं में त्राहि त्राहि मच गयी, देवताओं नें देवी को प्रचंड चंड चंडिका कह कर संबोधित किया, ऋषियों नें कटे हुये सर के कारण देवी को नाम दिया छिन्नमस्ता, तब शिव नें कबंध शिव का रूप बना कर देवी को शांत किया, शिव के आग्रह पर पुनहः देवी ने सौम्य रूप बनाया, नाथ पंथ सहित बौद्ध मताब्लाम्बी भी देवी की उपासना क्जरते हैं, भक्त को इनकी उपासना से भौतिक सुख संपदा बैभव की प्राप्ति, बाद विवाद में विजय, शत्रुओं पर जय, सम्मोहन शक्ति के साथ-साथ अलौकिक सम्पदाएँ प्राप्त होती है, इनकी सिद्धि हो जाने ओपर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता,
छिन्न्मस्ता करे वामे धार्यन्तीं स्व्मास्ताकम, प्रसारितमुखिम भीमां लेलिहानाग्रजिव्हिकाम,
पिवंतीं रौधिरीं धारां निजकंठविनिर्गाताम, विकीर्णकेशपाशान्श्च नाना पुष्प समन्विताम,
दक्षिणे च करे कर्त्री मुण्डमालाविभूषिताम, दिगम्बरीं महाघोरां प्रत्यालीढ़पदे स्थिताम,
अस्थिमालाधरां देवीं नागयज्ञो पवीतिनिम, डाकिनीवर्णिनीयुक्तां वामदक्षिणयोगतः
श्री महाविद्या छिन्नमस्ता महामंत्र
मंत्र- “श्रीं ह्लीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहाः“
ॐ वैरोचन्यै विद्महे छिन्नमस्तायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्
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6. त्रिपुर भैरवी
मंत्र कृ “ॐ ह्लीं भैरवी कलौं ह्लीं स्वाहाः“
7. धूमावती
मंत्र- “ॐ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहाः“
8. बगलामुखी
ॐ सौवर्णासन-संस्थितां त्रिनयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्। हेमाभांगरुचिं शशांक-मुकुटां सच्चम्पक स्रग्युताम्।।
हस्तैर्मुद्गर पाश वज्ररसनाः संबिभ्रतीं भूषणैः। व्याप्तांगीं बगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिन्तयेत्।।
मन्त्र कृ “ॐ ह्लीं बगलामुखी देव्यै ह्लीं ॐ नमः“
9. मातंगी
मंत्र कृ “ॐ ह्लीं ऐं भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहाः“
मातंगी ध्यान मंत्र
ॐ श्यामांगी शशिशेखरां त्रिनयनां वेदैः करैर्बिभ्रतीं, पाशं खेटमथांकुशं दृढमसिं नाशाय भक्तद्विषाम्।
रत्नालंकरणप्रभोज्ज्वलतनुं भास्वत्किरीटां शुभां, मातंगी मनसा स्मरामि सदयां सर्वार्थसिद्धिप्रदाम्।।
ॐ शिरो मातंगिनी पातु, भुवनेशी तु चक्षुषी । तोडला कर्ण-युगलं, त्रिपुरा वदनं मम ॥
पातु कण्ठे महा-माया, हृदि माहेश्वरी तथा । त्रि-पुष्पा पार्श्वयोः पातु, गुदे कामेश्वरी मम ॥
ऊरु-द्वये तथा चण्डी, जंघयोश्च हर-प्रिया । महा-माया माद-युग्मे, सर्वांगेषु कुलेश्वरी ॥
अंग प्रत्यंगकं चैव, सदा रक्षतु वैष्णवी । ब्रह्म-रन्घ्रे सदा रक्षेन्, मातंगी नाम-संस्थिता ॥
रक्षेन्नित्यं ललाटे सा, महा-पिशाचिनीति च । नेत्रयोः सुमुखी रक्षेत्, देवी रक्षतु नासिकाम् ॥
महा-पिशाचिनी पायान्मुखे रक्षतु सर्वदा । लज्जा रक्षतु मां दन्तान्, चोष्ठौ सम्मार्जनी-करा ॥
चिबुके कण्ठ-देशे च, ठ-कार-त्रितयं पुनः । स-विसर्ग महा-देवि । हृदयं पातु सर्वदा ॥
नाभि रक्षतु मां लोला, कालिकाऽवत् लोचने । उदरे पातु चामुण्डा, लिंगे कात्यायनी तथा ॥
उग्र-तारा गुदे पातु, पादौ रक्षतु चाम्बिका । भुजौ रक्षतु शर्वाणी, हृदयं चण्ड-भूषणा ॥
जिह्वायां मातृका रक्षेत्, पूर्वे रक्षतु पुष्टिका । विजया दक्षिणे पातु, मेधा रक्षतु वारुणे ॥
र्नैऋत्यां सु-दया रक्षेत्, वायव्यां पातु लक्ष्मणा । ऐशान्यां रक्षेन्मां देवी, मातंगी शुभकारिणी ॥
रक्षेत् सुरेशी चाग्नेये, बगला पातु चोत्तरे । ऊर्घ्वं पातु महा-देवि । देवानां हित-कारिणी ॥
पाताले पातु मां नित्यं, वशिनी विश्व-रुपिणी । प्रणवं च ततो माया, काम-वीजं च कूर्चकं ॥
मातंगिनी ङे-युताऽस्त्रं, वह्नि-जायाऽवधिर्पुनः । सार्द्धेकादश-वर्णा सा, सर्वत्र पातु मां सदा ॥
10. कमला
मंत्र कृ “ॐ हसौः जगत प्रसुत्तयै स्वाहाः“
गुप्त नवरात्रि कथा-
गुप्त नवरात्रि से जुड़ी प्रामाणिक एवं प्राचीन कथा के अनुसार एक समय श्रृंगी ऋषि भक्तजनों को दर्शन दे रहे थे। अचानक भीड़ में से एक स्त्री निकलकर आई और हाथ जोड़कर ऋषि श्रृंगी से बोली कि मेरे पति दुर्व्यसनों से सदा घिरे रहते हैं जिस कारण मैं कोई पूजा-पाठ नहीं कर पाती। धर्म और भक्ति से जुड़े पवित्र कार्यों का संपादन भी नहीं कर पाती। यहां तक कि ऋषियों को उनके हिस्से का अन्न भी समर्पित नहीं कर पाती।
मेरा पति मांसाहारी हैं, जुआरी है, लेकिन मैं मां दुर्गा की सेवा करना चाहती हूं, उनकी भक्ति-साधना से अपने और परिवार के जीवन को सफल बनाना चाहती हूं। ऋषि श्रृंगी महिला के भक्तिभाव से बहुत प्रभावित हुए। ऋषि ने उस स्त्री को आदरपूर्वक उपाय बताते हुए कहा कि वासंतिक और शारदीय नवरात्रों से तो आम जनमानस परिचित है, लेकिन इसके अतिरिक्त 2 नवरात्रि और भी होते हैं जिन्हें ’गुप्त नवरात्रि’ कहा जाता है।
उन्होंने कहा कि प्रकट नवरात्रों में 9 देवियों की उपासना होती है और गुप्त नवरात्रों में 10 महाविद्याओं की साधना की जाती है। इन नवरात्रों की प्रमुख देवी स्वरूप का नाम सर्वैश्वर्यकारिणी देवी है। यदि इन गुप्त नवरात्रि में कोई भी भक्त माता दुर्गा की पूजा-साधना करता है, तो मां उसके जीवन को सफल कर देती हैं।
श्रृंगी ऋषि ने आगे कहा कि लोभी, कामी, व्यसनी, मांसाहारी अथवा पूजा-पाठ न कर सकने वाला भी यदि गुप्त नवरात्रों में माता की पूजा करता है, तो उसे जीवन में कुछ और करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। उस स्त्री ने ऋषि श्रृंगी के वचनों पर पूर्ण श्रद्धा करते हुए गुप्त नवरात्रि की पूजा की। मां उस पर प्रसन्न हुईं और उस स्त्री के जीवन में परिवर्तन आने लगा। उसके घर में सुख-शांति आ गई। उसका पति, जो गलत रास्ते पर था, सही मार्ग पर आ गया। गुप्त नवरात्रि की माता की आराधना करने से उनका जीवन पुनः सामान्य हो गया।
नोटः आलेख में वर्णित विचार हिंदू धर्म एवं सनातन संस्कृति की परंपराओं पर आधारित हैं। इसके संबंध में किसी भी प्रकार का दावा नहीं किया गया है। उपरोक्त वर्णित लेख में धार्मिक जनरूचि को ध्यान में रखा गया है। अलग अलग धर्मों की अलग मान्यताएं हो सकती हैं।
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