-बीजेपी और कांग्रेस ने खेला 60 फीसदी सवर्ण उम्मीदवारों पर दांव
-आरजेडी ने 10 फीसदी तो लोजपा का 35 फीसदी सवर्णों को टिकट
हीरेन्द्र सिंह राठौड़/ पटना
बिहार की सियासत ने करवट बदली है। करीब तीन दशक बाद राज्य की सियासत ‘‘भूराबाल’’ यानी सवर्णों की ओर लौटती दिखाई दे रही है। इस बार टिकट बंटवारे में लगभग सभी राजनीतिक दलों ने राजपूत, ब्राह्मण, वैश्य व अन्य सवर्णों को तवज्जो दी है। आम तौर पर लालू प्रसाद यादव का राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और नीतीश कुमार का जनता दल यूनाईटेड (जेडीयू) दलित-पिछड़ों की राजनीति करते रहे हैं। लेकिन इस बार सवर्ण उम्मीदवारों का खास ख्याल रखा गया है।
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भारतीय जनता पार्टी ने तो खुलकर सवर्णों को टिकट दिये हैं। दलित-पिछड़ों की राजनीति करने वाले चिराग पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी भी सवर्णों को जोड़ने में पीछे नहीं है। ऐसा माना जा रहा है कि बिहार में सवर्ण राजनीति फिर से लौटती दिख रही है। अभी तक के टिकट वितरण पर निगाह डालें तो बीजेपी ने अपनी तीसरी सूची तक 60 फीसदी सवर्ण उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं।
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कांग्रेस में भी सवर्ण उम्मीदवारों का प्रतिशत करीब-करीब इतना ही है। जेडीयू ने भी इस बार पहले के मुकाबले ज्यादा सवर्णों को टिकट दिया है। आंकड़ों पर नजर डालें तो आरजेडी ने इस बार करीब 10 फीसदी से ज्यादा सवर्णों को टिकट दिया है। सवर्णों को साधने के लिहाज से ही उसने अपने पार्टी के कद्ावर नेताओं के रिश्तेदारों को मैदान में उतारा है। इसी तरह एनडीएम में शामिल चिराग पासवान ने भी करीब 35 फीसदी सवर्ण उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है।
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इस बार बिहार चुनाव की खास बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के बीच बीजेपी के हिंदुत्व एजेंडे ने कांग्रेस और आरजेडी को एक बार सोचने पर मजबूर कर दिया है। यही वजह है माई (मुस्लिम-यादव) समीकरण वाली आरजेडी में मुसलमानों को पहले के चुनावों की तुलना में कम टिकट मिले हैं। इसी तरह पहले चरण के चुनाव के लिए कांग्रेस ने महज एक मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में उतारा है।
1990 में विरोध का शिकार हुई सवर्ण राजनीति
1989-90 तक बिहार की राजनीति में सवर्णों का दबदवा रहा है। लेकिन 1990 के बाद यहां की सवर्ण राजनीति घोर विरोध का शिकार हुई। 1990 में डॉ जगन्नाथ मिश्र चुनाव हार गए थे। लालू प्रसाद यादव ने बिहार की सत्ता संभाली थी। उस समय राजनीति ने ऐसी करवट बदली थी कि जनता दल के नेताओं ने खुले मंचों से सवर्णों यानी ‘‘भूराबाल’’ (भू-भूमिहार, रा-राजपूत, बा-ब्राह्मण- ल-कायस्थ) को कोसना शुरू किया था।
ओबीसी, दलित और बीसी की गोलबंदी ने लालू-नीतीश की जोड़ी को खूब मजबूती दी। इसके चलते 1992 में बिहार में ब्राह्मण कांग्रेस का साथ छोड़कर भाजपा के साथ आ गए थे। चरम पर चल रही दलित राजनीति को स्वर्गीय रामविलास पासवान ने भी खूब हवा दी थी। लेकिन आगे चलकर ओबीसी की राजनीति पर लालू और नीतीश कुमार बंट गए थे। इसके बाद 1994 में उन्होंने समता पार्टी बनीई और नीतीश की समता पार्टी ने भी सवर्ण विरोधी राजनीति को जमकर हवा दी।
30 साल बाद सियासी बदलाव की बयार
1995 आते-आते बिहार में एक बार फिर सवर्ण राजनीति को मजबूती देने की कोशिशें तेज हुईं। राजपूत और भूमिहार नेता खुलकर सामने आने लगे। 2003 में जेडीयू के गठन के साथ नीतीश कुमार ने अपने पुराने सवर्ण विरोधी रुख रूख में थोड़ा बदलाव करना शुरू किया। इसके चलते वह सवर्ण के एक तबके भूमिहार को वह अपने पाले में लाने में सफल हुए। लेकिन समय बदला तो अब 2020 के विधानसभा चुनाव में सभी दलों को बिहार के सवर्ण मतदाताओं की चिंता सता रही है। इस बार के चुनाव की खास बात यह है कि चुनाव में सभी दलों से टिकट पाने वालों सवर्ण उम्मीदवारों की संख्या ज्यादा है।